शिव भजन ‘हर-हर शंभू’ (Har Har Shambhu Controversy) गाकर फरमानी नाज चर्चा में हैं। इस गाने का ओरिजनल वर्जन दो माह पहले अभिलिप्सा पांडा और जीतू शर्मा ने गाया था। फरमानी नाज की आवाज में भी इस गाने को यूट्यूब पर खूब पसंद किया जा रहा है। लेकिन कुछ मुस्लिम कट्टरपंथी नाज की आवाज से परेशान हो रहे हैं, भजन गाने को इस्लाम और शरीयत के खिलाफ बता रहे हैं।
देवबंद के कुछ मौलानाओं ने नाज के खिलाफ फतवा भी जारी कर दिया है। एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, उलेमा मुफ्ती असद कासमी ने कहा है, “इस्लाम में किसी भी तरह का नाच-गाना जायज नहीं है। जो भी नाच-गाना करते हैं या गाना गाते हैं, वो जायज नहीं है ये हराम है। हराम के काम से मुसलमानों को परहेज करना चाहिए। इस औरत ने जो गाना गाया है वो जायज नहीं है। ये हराम है उसे अल्लाह से तौबा करनी चाहिए।”
भारत में सिनेमा, साहित्य और संगीत की दुनिया में धर्म को दरकिनार कर रचना करना बहुत आम रहा है। फरमानी नाज कोई पहली मुस्लिम सिंगर नहीं हैं, जिन्होंने हिंदू धर्म के किसी ईश्वर के लिए गीत या भजन गाया हो। संगीत की दुनिया के सितारे मोहम्मद रफी, बेगम परवीन सुल्ताना, शकील बदायुनी, उस्ताद गुलाम अली खान… आदि अनेक मुस्लिम गायक/गायिकाओं ने भजन और भक्ति गीत गए हैं। मोहम्मद रफी की मौत तो दुर्गा-पूजा के लिए भजन रिकॉर्ड करने के ठीक बाद हुई थी।
रफी ने रमज़ान में गाया था भजन
मोहम्मद रफी दीन-ओ-ईमान के पक्के शख़्स थे। हर वक्त की नमाज पढ़ते थे। एक वक्त तो ऐसा भी आया था जब उन्होंने हज से लौटकर गाना गाना ही छोड़ दिया था। हालांकि बाद में उन्होंने फैसला बदल लिया। इतनी शिद्दत से अपने धर्म को मानने वाले रफी ने मौत से ठीक पहले दुर्गा पूजा के लिए भजन रिकॉर्ड किया था।
साल 1980 में रमजान का महीना चल रहा था। जुमे की एक रोज कोलकाता से आए कुछ लोग रफी से मिलने पहुंचे। घर आए मेहमान आगामी दुर्गा पूजा के लिए एक भजन रिकॉर्ड कराना चाहते थे। रोजा रखे मोहम्मद रफी ने उन्हें मना न किया और 31 जुलाई का समय दे दिया। तबीयत कुछ ठीक नहीं थी लेकिन तय तारीख को रफी रिकॉर्डिंग के लिए पहुंच गए।
शाम को जब घर लौटे तो शरीर जवाब दे रहा था। कुछ ही देर में तबीयत इस कदर बिगड़ी की अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा और रात करीब साढ़े दस बजे वह इस दुनिया को अलविदा कह गए।
मोहम्मद रफी ने अपने सिंगिंग करियर में कई भजन और भक्ति गीत गाए। उन्होंने साल 1970 में आयी फिल्म गोपी के लिए ‘सुख के सब साथी’ गीत गाया था, जिसके बोल थे- ‘सुख के सब साथी दुःख में ना कोई, मेरे राम मेरे राम, तेरा नाम है साचा दूजा न कोई, सुख के सब साथी दुःख में ना कोई।’
फिल्म बैजू बावरा के लिए उन्होंने ‘मन तड़पत हरि दर्शन को आज’ गाया था। इस गाने की शुरुआत की हरि ओम के आलाप से होती है। गाने का एक अंतरा है- ‘मुरली मनोहर आस न तोड़ो, दुख भंजन मोरा साथ न छोड़ो, मोहे दरसन भिक्षा दे दो आज, दे दो आज, मन तड़पत हरि…’
सुहाग फिल्म के लिए मोहम्मद रफी का गाया ‘ओ शेरोवाली’ आज भी मंदिरों में बजाया जाता है। दुर्गा पूजा के दौरान तो यह गाना हर तरफ सुनाई देता है।
राही मासूम रज़ा ने लिखा था महाभारत का संवाद
बहुचर्चित उपन्यास आधा गांव के लेखक राही मासूम रज़ा हिंदुस्तानी साहित्य के पुरोधा हैं। आलोचकों को उनकी लेखनी से गंगा-जमुनी तहजीब की सुगंध आती है। रज़ा ने फिल्मों और सीरियल्स के लिए संवाद भी लिखा। बी. आर. चोपड़ा द्वारा निर्मित ‘महाभारत’, जिसे उत्तर भारत के घर-घर में पसंद किया गया। जिसके पात्रों को लोगों ने वास्तव में भगवान मान लिया, उस महाभारत का संवाद राही मासूम रज़ा ने लिखा था।
हालांकि पहले उन्होंने व्यस्तता का हवाला देकर प्रस्ताव ठुकरा दिया था। बात मीडिया पहुंची तो लोग बी.आर. चोपड़ा को चिट्ठी लिख-लिखकर पूछने लगे कि क्या देश में हिंदू मर गए हैं, जो आप एक मुसलमान से महाभारत का संवाद लिखवा रहे हैं। चोपड़ा ने चिट्ठियों को रज़ा के पास भिजवा दिया, जिसे पढ़ने के बाद उन्होंने फोन कर कहा- ”चोपड़ा साहब! महाभारत अब मैं ही लिखूंगा। मैं गंगा का बेटा हूँ। मुझसे ज्यादा हिंदुस्तान की संस्कृति और सभ्यता को कौन जानता है?”
साहित्य के कृष्ण प्रेमी मुसलमान
हिंदी साहित्य के भक्तिकाल में मुस्लिम कवियों का कृष्ण प्रेम बहुत ही आम है। हालांकि इसकी शुरुआत भक्तिकाल से बहुत पहले हो चुकी थी और सिलसिला आज भी जारी है। हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के खास और बहुमुखी प्रतिभा के धनी अमीर खुसरो का जिक्र हिंदी साहित्य के इतिहास में आदिकाल में मिलता है। आदिकाल यानी हिंदी साहित्य का सबसे पहला कालखंड। खुसरो कृष्ण के रास का जिक्र करते हुए लिखते हैं- ‘री सखी मैं जो गई थी पनिया भरन को, छीन झपट मोरी मटकी पटकी मोसे नैना मिलाइ के’
भक्तिकाल के रसखान तो आज भी मथुरा-वृंदावन में गाए जाते हैं। यह पहले सईद इब्राहीम हुआ करते थे लेकिन कृष्ण की भक्ति ऐसी चढ़ी कि रसखान हो गए। इनकी रचनाओं को सूरदास के समकक्ष माना जाता है। रसखान लिखते हैं – बंसी बजावत आनि कढ़ो सो गली में अली कछू टोना सों डारैं। हेरि चितै तिरछी करि दृष्टि चलो गयो मोहन मूठि सी मारैं॥ ताही घरी सों परी धरी सेज पै प्यारी न बोलति प्रानहूँ वारैं। राधिका जीहै तौ जीहैं सबै न तौ पीहैं हलाहल नंद के द्वारैं॥
अब्दुल रहीम खानखाना जिन्हें रहीम के नाम से जाना जाता है। उन्होंने लिखा है- जिहि रहीम मन आपुनों, कीन्हों चतुर चकोर। निसि बासर लाग्यो रहे, कृष्ण चन्द्र की ओर।
नज़ीर अकबराबादी द्वारा दीवाली पर लिखा काव्य भी मसहूर है। वह लिखते हैं – हमें अदाएँ दिवाली की ज़ोर भाती हैं। कि लाखों झमकें हरएक घर में जगमगाती हैं ।। चिराग जलते हैं और लौएँ झिलमिलाती हैं। मकां-मकां में बहारें ही झमझमाती हैं ।।