दुनिया जिसे ओशो (OSHO) के नाम से जानती है, वह कभी चंद्रमोहन जैन हुआ करते थे। उनका जन्म 11 दिसंबर, 1931 को मध्य प्रदेश के कुचवाड़ा में हुआ था। ओशो के लगभग सभी जीवनीकार यह लिखते हैं, वह बचपन से ही बहुत सवाल किया करते थे। कॉलेज पहुंचने तक उनकी यह आदत शिक्षकों की कठिनाई का कारण बन गया। बीए के बाद आलम यह हो गया कि एक कॉलेज को उन्हें निकालना पड़ा। इस किस्से का जिक्र वसंत जोशी ने ओशो की जीवनी ‘द ल्यूमनस रेबेल लाइफ स्टोरी ऑफ अ मैवरिक मिस्टिक’ में किया है।

ज्यादा सवाल पूछने के कारण कॉलेज से निकाले गए ओशो

जबलपुर के हितकारिणी कॉलेज में दर्शनशास्त्र के एक प्रोफेसर ओशो से इतने परेशान हो गए कि उन्होंने प्रधानाचार्य से जाकर कह दिया था कि या तो कॉलेज में वह रहेंगे या चंद्रमोहन जैन। दरअसल, ओशो दर्शनशास्त्र के उस प्रोफेसर से लेक्चर के दौरान इतने सवाल पूछते थे कि कोर्स पूरा नहीं हो पा रहा था। अंतत: प्रधानाचार्य ने ओशो को कॉलेज छोड़ने के लिए कहा।

हालांकि प्रधानाचार्य यह जानते थे कि छात्र की कोई गलती नहीं है, लेकिन वह अपने वरिष्ठ प्रोफेसर को नहीं खोना चाहते थे। ऐसे में ओशो इस शर्त पर कॉलेज छोड़ने के लिए मान गए कि उनका दाखिला किसी और कॉलेज में करवा दिया जाए। लेकिन समस्या यह थी कि ओशो को कोई कॉलेज अपने यहां लेना नहीं चाहता था। कड़ी मशक्कत के बाद डीएन जैन कॉलेज में उनका एडमिशन हुआ।

बचपन में गांधी से भिड़ गए थे ओशो

यह साल 1941 की बात है। तब चंद्रमोहन जैन ओशो नहीं हुए थे। उनकी उम्र करीब 10 साल थी। वह महात्मा गांधी से मिलने रेलवे स्टेशन पहुंचे थे। चंद्रमोहन के अलावा भी भारी संख्या में लोग पहुंचे थे। लेकिन गांधी की ट्रेन लेट होती चली गई। जब ट्रेन अपने तय समय से 13 घंटे देर से पहुंची, तब तक काफी लोग जा चुके थे। लेकिन चंद्रमोहन अब भी इंतजार कर रहे थे। गांधी ट्रेन से उतरे। उनके साथ सचिव और पत्नी कस्तूरबा थीं। स्टेशन मास्टर ने बच्चे की तारीफ करते हुए गांधी से मिलवाया।

बकौल ओशो गांधी ने उन्हें पास बुलाया। वह ओशो की तरफ देखने के बजाए उनकी जेब की तरफ देख रहे थे। गांधी ने पूछा इसमें क्या है? ओशो ने बताया तीन रुपये। यह तीन रुपये उन्हें उनकी दादी ने दिए थे। गांधी ने ओशो से अपने तीन रुपये दान करने को कहा। गांधी अपने साथ एक छेदवाला डब्बा लेकर चला करते थे, जिसमें वह दान मांगते थे।

गांधी के आग्रह पर ओशो ने कहा- अगर हिम्मत है तो पैसा छीन लीजिए। मैं भी यहीं हूं। पैसा भी यहीं है। या फिर मुझे बताइए कि आप पैसा क्यों मांग रहे हैं? गांधी ने कहा- गरीबों के लिए।

ओशो ने कहा- फिर ठीक है। उन्होंने तीन रुपये गांधी की दानपेटी में डाला और दानपेटी लेकर निकल पड़े। अब गांधी के आश्चर्य का ठिकाना न था। उन्होंने बच्चे को रोका और कहा- ऐसा न करो, ये गरीबों के लिए है।

ओशो ने कहा- मैं जानता हूं। आपने ही तो अभी बताया कि ये गरीबों के लिए है। मेरे गांव में बहुत गरीब हैं। आप बस मुझे चाबी दे दो वरना मुझे इसे खोलने के लिए किसी चोर को खोजना पड़ेगा।

इस स्थिति में गांधी ने समाधान के लिए अपने सचिव की तरफ देखा। सचिव खुद अवाक खड़ा था। फिर उन्होंने अपनी पत्नी की तरफ देखा। कस्तूरबा ने हंसते हुए कहा- अब कोई आपके टक्कर का मिला है। अच्छा है! ले जा बेटा इस डिब्बे को। मैं इसे पत्नी की तरह इनकी बगल में देख-देखकर थक गई हूं।

यह सब देखकर ओशो को गांधी पर दया आ गई। उन्होंने यह कहते हुए डिब्बा छोड़ दिया कि “मुझे लगता है आप ही सबसे गरीब हैं। आपके सचिव के पास बुद्धि नहीं है। ना ही आपकी पत्नी को आपसे कोई प्यार है। मैं बक्सा नहीं ले जा सकता। आप रख लो। लेकिन याद रखना मैं एक महात्मा से मिलने आया था लेकिन मुझे केवल एक व्यापारी मिला।”