वैश्विक सुरक्षा संकेतक स्पष्ट रूप से बताते हैं कि शांति और स्थिरता की स्थिति में गंभीर गिरावट आई है। अधिकांश रपट के अनुसार, आज की दुनिया हाल के इतिहास में कहीं अधिक हिंसाग्रस्त और खतरनाक बन चुकी है।
साल 2024 में, विश्वभर में राज्य-आधारित संघर्षों की संख्या 1946 के बाद अपने सबसे उच्च स्तर पर पहुंच गई है। लगातार दस वर्षों से सैन्य खर्च बढ़ रहा है और यह अब वार्षिक 2.7 खरब अमेरिकी डालर से ऊपर पहुंच चुका है। सशस्त्र संघर्षों के पीड़ित बच्चों की संख्या रेकार्ड स्तर पर पहुंच गई है, जबकि महिलाओं के अधिकारों पर भी वैश्विक स्तर पर खतरा है। विश्व आज कई जटिल संकटों का सामना कर रहा है।
सितंबर 2024 में, संयुक्त राष्ट्र ने ‘समिट फार द फ्यूचर’ का आयोजन किया, जिसका उद्देश्य शीत युद्ध के बाद बहुपक्षीय प्रणाली के पतन, बढ़ती संघर्ष स्थितियों और मानवीय आपदाओं से निपटने पर चर्चा करना था। ये सभी संकट जलवायु परिवर्तन के युग में उभर रहे हैं। इसके साथ ही, सैन्य बल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन और पर्यावरणीय क्षति में भी बड़ी भूमिका निभाते हैं, जो कभी-कभी पर्यावरणीय अपराध के रूप में देखा जाता है।
शांति को लेकर काम करने वालों के लिए गंभीर संकट
वैश्विक हिंसा और असुरक्षा के बढ़ने पर अधिकांश देशों का प्राथमिक जवाब सैन्य बजट बढ़ाना रहा है। यूरोप में यह मुख्यत: रूस के 2022 में यूक्रेन पर आक्रमण के बाद बढ़ी चिंता के कारण है। रूस द्वारा पोलैंड और रोमानिया के हवाई क्षेत्र में हाल ही में ड्रोन भेजने की घटना इस खतरे को दर्शाती है। साल 2025 के नाटो शिखर सम्मेलन में, अमेरिकी दबाव में, सदस्यों ने 2035 तक अपनी जीडीपी का 5 फीसद रक्षा और सुरक्षा खर्च के लिए आवंटित करने का वादा किया। 2024 में अधिकांश यूरोपीय देशों ने अपने सैन्य बजट बढ़ाए हैं, रूस ने भी ऐसा किया है। चीन ने पिछले 30 वर्षों में लगातार सैन्य खर्च बढ़ाया है। अमेरिका रक्षा पर खर्च करने के मामले में सबसे बड़ा देश है।
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वहीं, शांति निर्माण और शांति स्थापना के लिए काम करने वाले संगठन गंभीर अर्थ संकट का सामना कर रहे हैं। डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन ने सत्ता में आते ही ‘अमेरिका इंस्टीट्यूट आफ पीस’ को बंद कर दिया। अमेरिकी अनुदान कटौती और महिलाओं के अधिकारों के खिलाफ प्रतिक्रिया ने लैंगिक समानता को एजेंडा से बाहर कर दिया है। महिलाओं के नेतृत्व वाले शांति प्रयासों को विशेष रूप से फंडिंग की कमी झेलनी पड़ रही है, जबकि यह वर्ष संयुक्त राष्ट्र के ‘महिला, शांति और सुरक्षा’ एजेंडा की 25वीं वर्षगांठ भी है।
वैश्विक हिंसा का संकट
इसके बावजूद, अफगानिस्तान जैसे स्थानों पर महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ हिंसा गंभीर बनी हुई है, जहां तालिबान ने लैंगिक भेदभाव की प्रणाली लागू की है। फलस्तीन में, संयुक्त राष्ट्र की विशेष संवाददाता रीम अलसालेम ने इजराइल द्वारा फिलिस्तीनी महिलाओं और लड़कियों को मारे जाने को ‘महिला नरसंहार’ (फेमी-जीनोसाइड) बताया है।
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एक विभाजित दुनिया में, शक्तिशाली देशों के बीच बढ़ते तनाव के कारण अंतरराष्ट्रीय शांति व्यवस्था कमजोर हो रही है, और मानवीय जरूरतें हिंसक संघर्षों की वजह से बढ़ती जा रही हैं। फिर भी सरकारें अपनी सैन्य ताकत और हथियारों पर अधिक खर्च कर रही हैं, जबकि शांति स्थापना में निवेश बहुत कम कर रही हैं। यह प्रवृत्ति दुनिया को और भी खतरनाक बना रही है।
शांति की राह में चुनौतियां
दुनिया अब भी स्थायी शांति कायम करने की प्रक्रिया सीख रही है। पिछले कुछ दशकों में किए गए कई शांति समझौते टूट चुके हैं और संघर्ष फिर शुरू हो गए हैं। जहां समझौते कायम हैं, वहां भी संरचनात्मक और रोजमर्रा की हिंसा विशेषकर महिलाओं के लिए व्यापक है। शांति के लिए सौदेबाजी की ओर एक चिंताजनक बदलाव हो रहा है, जिसमें समावेशिता और निष्पक्षता जैसे मूल सिद्धांत छोड़ दिए जा रहे हैं। लड़ाई में तकनीकी विराम को प्राथमिकता देना, स्थायी समाधान की बजाय, शांति प्रयासों की विफलता का संकेत है।
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यदि राष्ट्र अपनी निवेश नीति को शांति निर्माण की ओर नहीं मोड़ते हैं, तो असुरक्षा और बढ़ेगी, और अंतरराष्ट्रीय मानदंड व मानवाधिकार कमजोर होंगे। केवल सैन्य खर्च पर निर्भर रहना संघर्ष को रोकने में असफल रहता है और यह लैंगिक समानता, मानवाधिकार और शांति स्थापना पर नकारात्मक प्रभाव डालता है। इसलिए, देशों को अपने सैन्य बजट को अत्यधिक स्तर तक बढ़ाने से बचना चाहिए और इसके बजाय शांति अनुसंधान, मध्यस्थता प्रयासों और शांति से संबंधित संस्थानों में निवेश बढ़ाना चाहिए।