जर्मनी में इन दिनों मुसलमानों पर ‘मस्जिद टैक्स’ लगाने की बातें चल रही हैं। सत्ताधारी गठबंधन के कई सांसदों का कहना है कि जिस तरह जर्मनी समेत कई यूरोपीय देशों में ईसाइयों से चर्च टैक्स लिया जाता है, उसी तरह मुसलमानों पर मस्जिद टैक्स लगाया जाए और इससे मिलने वाली राशि से मस्जिदों की आर्थिक जरूरतें पूरी की जाएं। मस्जिद टैक्स लगाने का मकसद जर्मनी में रहने वाले मुसलमानों को बाहरी देशों के प्रभाव से मुक्त करना है। जर्मनी में कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट ईसाइयों से चर्च टैक्स लिया जाता है जिससे चर्च की गतिविधियों के लिए जरूरी आर्थिक राशि मुहैया कराई जाती है। यह टैक्स सरकार जमा करती है जिसे बाद में धार्मिक अधिकारियों को सौंप दिया जाता है। मस्जिदों के लिए फिलहाल ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है जिसके कारण वे चंदे, और खासकर विदेशों से आने वाली मदद पर निर्भर होती हैं। मस्जिदों को विदेशी संगठनों और सरकारों से मिलने वाली वित्तीय मदद कई चिंताएं भी पैदा करती है। अकसर सवाल उठते हैं कि इस तरह की मदद के सहारे चरमपंथी विचारधारा को फैलाया जा रहा है। इस बारे में जर्मनी में सक्रिय धार्मिक मामलों की टर्किश इस्लामिक यूनियन का नाम खास तौर से लिया जाता है जो सीधे तौर पर तुर्की की सरकार से जुड़ी है।
दरअसल जर्मनी में हाल के सालों में जिन मुद्दों को लेकर सबसे जोरदार बहस होती रही है, उनमें इस्लाम भी शामिल है। इसकी एक वजह 2015 का शरणार्थी संकट है जब मध्य पूर्व के देशों से एक साथ दस लाख से ज्यादा लोग जर्मनी में आ गए। लेकिन इस्लाम को लेकर जारी बहस की सिर्फ यही अकेली वजह नहीं है, क्योंकि शरणार्थी संकट से पहले भी जर्मनी में तुर्क मूल के मुसलमानों की एक बड़ी आबादी रह रही थी। जर्मन समाज में उनके पूरी तरह घुलने मिलने यानी एकीकरण से जुड़ी मुश्किलों और पहलों पर बहस होती रही है। लेकिन हाल के सालों में इस बहस का दायरा बढ़ गया है। अधिकारी लगातार जर्मन मुसलमानों पर बढ़ते कट्टरपंथी असर को लेकर चिंतित हैं। इस्लाम और शरणार्थियों के मुद्दे पर जर्मन चांसलर अंगेला मैर्केल और जर्मन गृह मंत्री होर्स्ट जेहोफर के बीच कई बार तकरार हो चुकी है। जुलाई के महीने यह तनाव इतना बढ़ गया था कि जेहोफर ने इस्तीफा तक देने का मन बना लिया था। मैर्केल की सीडीयू पार्टी और जेहोफर की सीएसयू पार्टी के बीच 70 साल से चल रहे गठबंधन पर भी सवाल उठने लगे थे। इससे पहले मार्च के महीने में भी दोनों के बीच उस वक्त भी मतभेद दिखे जब जेहोफर ने कहा कि इस्लाम जर्मनी का हिस्सा नहीं है, जबकि चांसलर मैर्केल 2015 के बाद से इस्लाम को लगातार जर्मन संस्कृति का हिस्सा बताती रही हैं। बहरहाल मैर्केल ने जेहोफर को ना सरकार से अलग होने दिया और ना ही गठबंधन से। दो महीने पहले नए इमिग्रेशन कानून बनाए गए, जिनके मुताबिक गरीब और अशिक्षित लोगों का जर्मन आना मुश्किल होगा। हालांकि नए कानूनों में भी यह सुनिश्चित किया गया है कि जिन्हें जर्मन कानून के तहत शरण पाने का हक है, उन्हें शरण मिले। लेकिन यूरोपीय संघ के बाहर के देशों से ऐसे लोग जर्मनी में नहीं रह पाएंगे जिनके पास न उच्च शिक्षा होगी और ना ही नौकरी का कोई ठोस ऑफर।
नए इमिग्रेशन कानूनों के बावजूद इस्लाम और शरणार्थियों को लेकर जर्मनी में बहस जारी है। और जब आपका देश यूरोप में मुस्लिम आबादी वाला दूसरा सबसे बड़ा देश हो तो यह बहस स्वाभाविक भी है। जर्मनी की लगभग सवा आठ करोड़ की आबादी में 44 लाख से 47 लाख मुसलमान हैं। कुल आबादी में उनकी हिस्सेदारी लगभग छह प्रतिशत है। वहीं फ्रांस यूरोप में सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी वाला देश है जहां 57 लाख से ज्यादा मुसलमान रहते हैं। यह बात स्वाभाविक है कि जर्मनी में रहने वाले बहुत से मुसलमानों की जीवनशैली आम जर्मन लोगों से अलग होगी क्योंकि वह एक अलग सामाजिक और धार्मिक परिवेश में पले बढ़े हैं। इनमें बहुत से लोग बाहर से आकर यहां बसे हैं। अकसर इंसान अपना देश तो छोड़ देता है, लेकिन अपनी जड़ों से जुड़े रहना चाहता है। अपनी परंपराएं और अपने सामाजिक मूल्य उसे पराए देश में ज्यादा अपने लगने लगते हैं। धार्मिक पहचान भी इसका हिस्सा है। ऐसे में जर्मन मुसलमानों के कदम मस्जिदों की तरफ जाते हैं। अभी जर्मनी में स्थिति यह है कि मस्जिदें ना सिर्फ विदेशों से मिलने वाले चंदे पर निर्भर हैं, बल्कि इमाम भी वहीं से आ रहे हैं। टर्किश-इस्लामिक यूनियन फॉर रिलीजियस अफेयर्स जर्मनी में सबसे बड़ा इस्लामिक संगठन है, जो सीधे तौर पर तुर्की की सरकार से जुड़ा है। जर्मनी के शहर कोलोन में इसका मुख्यालय है और यह देश भर में 900 से ज्यादा मस्जिदें चलाता है। इस संगठन पर आरोप लगते हैं कि वह तुर्की की सरकार के निर्देशों पर काम करता है। इसके अलावा जर्मनी में बेहद कट्टरपंथी इस्लामी विचारधारा को मानने वाले सलाफियों की तादाद भी बढ़ रही है, जिसका सीधा असर जर्मन मुसलमानों पर बढ़ते कट्टरपंथी असर के रूप में सामने आता है।
जर्मनी में मौजूद मस्जिदों को विदेशों से कितनी मदद मिल रही है, इस बारे में फिलहाल कोई स्पष्ट आंकड़े भी नहीं हैं। इसीलिए अब सरकार इस मदद पर नजर रखने की तैयारी कर रही है। जर्मन मीडिया में आई हालिया रिपोर्टों के मुताबिक सरकार ने जर्मन मस्जिदों को मदद देने वाले देशों से कहा है कि जितनी भी रकम वे मदद के तौर पर दे रहे है, उसके बार में जानकारी मुहैया कराएं। खासकर सऊदी अरब, कतर, कुवैत और दूसरे खाड़ी देशों से यह आग्रह किया गया है। मीडिया रिपोर्टों में कहा गया है कि सरकार ने घरेलू और विदेशी खुफिया सेवाओं से इस बात पर नजर रखने को कहा है कि कौन मदद भेज रहा है और वह किसको मिल रही है। बताया जा रहा है कि कुवैत के साथ सहयोग के अच्छे नतीजे मिलने शुरू भी हो गए हैं जबकि अन्य देश इस बारे में सहयोग करने से हिचक रहे हैं। जर्मनी के संयुक्त आतंकवाद विरोधी सेंटर का कहना है कि कट्टरपंथी इस्लामी समूहों को प्रभावित करना सऊदी अरब जैसे देशों की “दीर्घकालिक रणनीति” रही है। हालांकि सऊदी अरब इससे इनकार करता है। जर्मन खुफिया एजेंसियों का कहना है कि खाड़ी देशों से आने वाले “मिशनरी समूह” जर्मनी और यूरोप में सलाफियों से जुड़ रहे हैं। इन सब चुनौतियों के बीच मस्जिदों के लिए टैक्स से राशि जुटाना एक तार्किक कदम नजर आता है। उदारवादी मुस्लिम नेता इसका समर्थन भी कर रहे हैं। लेकिन हो सकता है कि यह कदम सभी मुसलमानों के गले आराम से नहीं उतरे। लेकिन समाज में कट्टरपंथी असर को रोकने के लिए कदम उठाने ही होंगे। मुस्लिम समुदाय के साथ इस बारे में खुल कर संवाद की जरूरत है और संवाद हो भी रहा है। सबको साथ लेकर चलना ही तो एकीकरण का मूलमंत्र है।