दुनिया के नक्शे पर 16 दिसंबर 1971 को बांग्लादेश के रूप में एक नए देश का जन्म हुआ था। 1947 में भारत से अलग होने के 25 साल के भीतर पाकिस्तान के दो टुकडे़ हो गए। साथ ही पाकिस्तानी सेना को तीसरी बार भारतीय सेना से शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। लेकिन क्या आप जानते हैं कि इस सबकी जड़ में पाकिस्तानी सेना का “लोकतंत्र से बैर” है? 1947 से अब तक पाकिस्तान में लोकतांत्रिक सरकारों से ज्यादा समय सैन्य तानाशाहों ने शासन किया है लेकिन इस बात की कम चर्चा होती है कि अगर पाकिस्तानी सेना ने पाकिस्तान में हुए पहले आम चुनाव में मिले जनमत का सम्मान किया होता तो 1971 में बांग्लादेश (तब पूर्वी पाकिस्तान) पाकिस्तान से अलग नहीं हुआ होता।
भारत से विभाजन के बाद पाकिस्तान अलग देश तो बन गया लेकिन उसके ही दो हिस्सों (पश्चिमी पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान) के बीच भौगोलिक और भाषाई दीवार विरासत में मिली। एक तरफ पाकिस्तान के दोनों हिस्सों के बीच 1300 मील की भौगोलिक दूरी थी तो दूसरी तरफ पश्चिमी पाकिस्तान में पंजाब-उर्दू जबान का दबदबा था और पूर्वी पाकिस्तान में बांग्ला का।
पूर्वी पाकिस्तान के लोग पाकिस्तान बनने के बाद से ही बांग्ला को अंग्रेजी और उर्दू के साथ राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिए जाने की मांग कर रहे थे। पूर्वी पाकिस्तान के लोगों के लिए बांग्ला महज भाषा नहीं अस्मिता का सवाल थी। पश्चिमी पाकिस्तान में रहने वाले हुक्मरानों द्वारा बांग्ला अस्मिता के दमन से पूर्वी पाकिस्तान की कोख में विरोध की चिंगारी सुलग रही थी। लेकिन ये विरोध की ये चिंगारी विद्रोह के रूप में तब भड़की जब पूर्वी पाकिस्तान के नेता शेख मुजीबुर रहमान को मिली चुनावी जीत के बाद भी देश का प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया।
नवंबर 1969 में पाकिस्तानी सैन्य जनरल याहया खान को पाकिस्तानी की बागडोर सैन्य जनरल और राष्ट्रपति अयुब खान से मिली थी। अयुब खान एक दशक से अधिक समय तक पाकिस्तान के राष्ट्रपति रहे थे। याहया खान ने सत्ता संभालते ही “कानूनी सीमाओं के अंदर आम चुनाव कराने” की घोषणा की। छह दिसंबर 1970 को पाकिस्तान में पहली बार नेशनल असेंबली की 300 सीटों के लिए आम चुनाव हुए। चुनाव में शेख मुजीबुर रहमान की अवाली लीग ने छह सूत्रीय एजेंडे पर चुनाव लड़ा। चुनाव में पूर्वी पाकिस्तान की कुल 162 सीटों में 160 पर मुजीब को जीत मिली। वहीं पश्चिमी पाकिस्तान की कुल 138 सीटों में 81 पर जुल्फीकार अली भुट्टो की पाकिस्तान पीपल्स पार्टी को जीत मिली। बाकी किसी राजनीतिक दल की सीटों का आंकड़ा दहाई तक नहीं पहुंचा।
जनादेश साफ तौर पर मुजीब के पक्ष में था। बहुमत के आधार पर मुजीब को देश का पहलाअवाम का चुना हुआ प्रधानमंत्री होना था। लेकिन पाकिस्तानी सेना द्वारा समर्थन प्राप्त भुट्टो ने खुद को पश्चिमी पाकिस्तान की अवाम का अकेले प्रतिनिधि घोषित कर दिया। मुजीब और भुट्टो के बीच सुलह की कोशिश विफल रही। सैन्य जनरल से राष्ट्रपति बने याहया खान ने पाकिस्तान के पहले जनादेश की भ्रुण हत्या करते हुए नेशनल असेंबली को अनिश्चित काल के लिए स्थगित करने का आदेश दे दिया।
प्रधानमंत्री बनने के लोकतांत्रिक अधिकार के हनन के बाद तीन मार्च 1971 को मुजीब ने नेशनल असेंबली को अनिश्चित काल के लिए स्थगित करने का सार्वजनिक विरोध का आह्वान किया। मुजीब के विरोध का पाकिस्तानी सेना और पुलिस ने दमन करने की ठानी। पाकिस्तान सरकारी के आंकडो़ं के अनुसार इस विरोध प्रदर्शन में शामिल 172 मुजीब समर्थक मारे गए और 358 अन्य घायल हुए।
याहया खान ने 25 मार्च 1971 को मुजीब के विरोध को पूरी तरह कुचलने के लिए पूर्वी पाकिस्तान में “ऑपरेशन सर्चलाइट” का आदेश दे दिया। इसके बाद अगले 10 महीने पूर्वी पाकिस्तान के लिए रक्तरंजित रहे। चार दिसंबर को भारत ने बांग्लादेश मुक्ति वाहिनी की मदद के लिए युद्ध की घोषणा की। महज 13 दिन बाद 16 दिसंबर 1971 को पाकिस्तान सेना ने भारत के सामने आत्मसमर्पण कर दिया और बांग्लादेश के रूप में एक नए देश का जन्म हुआ। अगर पाकिस्तानी सेना ने लोकतंत्र का सम्मान किया होता और मुजीब की सरकान बनने दी होती शायद पाकिस्तान के दो टुकड़े नहीं होते।