दीप्ति अंगरीश

जीवन में किसी भी परीक्षा में उत्तीर्ण हों या अनुत्तीर्र्ण, कर्तव्य पथ पर आगे बढ़ना ही जीवन की गति है। शायद बहुतेरे इससे सहमत नहीं हों या कुछ सोचें कि हमारे मन की बात फटाक से पढ़ ली। पर यह सच है तो है। उम्र तो बढ़ रही है हमारी। पर डर आज भी कायम है। जब बच्चे थे तब भी डरते थे। बस, आज हमारे डर की परिभाषा बदल गई है। छुटपन का डर अलग था। किसी बच्चे से पूछें तो उसे किस चीज का डर है? जवाब में पापा और अध्यापक की मार का डर। आपका डर तो काफी अलग है।

किसी को गरीबी का डर, किसी को नौकरी छूटने का डर, किसी को अपमान का डर, किसी को बीमारी का डर, किसी को जिंदगी का डर। ना जाने कितने डर हैं। स्वीकारते हैं कि डर के साथ जीना मुश्किल होता है। पर असंभव नहीं। धर्म भी तो यही कहता है कि भीतर के डर को निकालने पर ही सच्ची इबादत होती है। जानते हम सभी हैं। कुछेक ही इसे अमल में लाते हैं। यह डर ही चुपके-चुपके आपमें दस्तक देता है। मालूम भी नहीं चलता कब भीतर से खोखला करता जाता है। इसका असर सिर्फ आप पर नहीं आपके आस-पास वालों पर भी पड़ता है। ऐसा लगता है कि कभी-कभी हम खुद जीवन से डरते हैं।

हम डर में जीते हैं। हम डर में काम करते हैं। हम डर में चलते हैं। हम डर में बात करते हैं। यह डर को आगे भी तो प्रसारित करते हैं। किसी भी काम के श्रीगणेशके साथ ही डर की दस्तक होती है। फिर यह डर असहजता को पल्लवित करेगा। जो दिखता आप पर, आपके काम पर और आस-पास वालों पर। जब डर की तरंगे इतनी प्रसारित होंगी तो अच्छे की उम्मीद कैसे करेंगे? नकरात्मकता में कोई भी काम पुष्पित हो सकता है? आप स्वीकार करें कि डर के आगे ही जीत है।

सूर्य की पहली किरण संदेश देती है कि आपका आज फिर पुनर्जन्म हो गया है। बीते हुए दिन की परेशानियों को छोड़ नए साहस के साथ मुकाबला करने का एक मौका और मिला है। डर, भय सभी दुर्भाग्य को जन्म देता है।

निरंतर भय में रहने से सकरात्मक ऊर्जा समाप्त हो जाती है। ऐसे में क्या जीवन के आनंद लेना संभंव है? सरासर नहीं। भय मन को पंगु बना देता है। ठीक वैसे ही जैसे एक आघात शरीर को पंगु बना देता है। यह तंत्रिका तंत्र पर प्रहार करता है। यह तनाव का कारण बनता है। सबसे बुरी बात यह है कि यह हमारे सुख को छीन लेता है और हमारे मन की शांति को नष्ट कर देता है। आप स्वयं नरक का स्वर्ग, स्वर्ग का नरक बना सकते हो।

याद रहे कि भय पैदा करता है असुरक्षा और सिफर होता है आत्मविश्वास। फिर क्या आप सफलता, खुशी का सोच सकते हैं? इसके लिए आपको डर को जीना होगा। लेकिन इससे हारना नहीं होगा। ना ही अपने पर हावी होने देना होगा। अगर हमें जीवन को पूरी तरह से जीना है, तो हमें निडर होना चाहिए। आपके सामने दो विकल्प खुले हैं। एक तो अपने डर के आगे झुकना है, अपने आप को उससे अभिभूत कर देना है। इस प्रक्रिया में अपने जीवन को दुखी करना। दूसरा विकल्प है भगवान की मदद से अपने डर को दूर करना है।

जब आप ऐसा करते हैं, तो आपको सफलता प्राप्त होती है, जो आपके जीवन को बदल सकती है। हम सभी में इसे हासिल करने की क्षमता है। भय से मुक्त होने के लिए पहला कदम यह जानना है कि भय, अन्य सभी मानवीय कमजोरियों की तरह हटाने योग्य है। यह भगवान द्वारा आप में नहीं डाला गया था। आपको जीवन भर डर के साथ जीने की निंदा नहीं की जाती है। भगवद् गीता हमें बताती है-भय से मुक्त रहो। निडर बनो और परमात्मा में विश्वास रखो। जीवन की अनिश्चितताओं को स्वीकार करने की भावना से स्वीकार करना होगा।

भागना कोई समाधान नहीं है। जीवन हमसे मांग करता है कि हम साहस के साथ जीएं। कार्य करने के साहस के बिना न्याय असंभव होगा। प्रेम करने के साहस के बिना करुणा और समझ का अस्तित्व नहीं होता। सहने की हिम्मत के बिना विश्वास और आशा नहीं पनपती। हमें कभी भी मन की शक्ति और इच्छा शक्ति को कम नहीं आंकना चाहिए। भय से मुक्ति के साथ ही साथ अपना स्वास्थ्य, खुशी और सद्भाव को भी जीवन में शामिल करना चाहिए। खुशी भी आदतन सही सोच की उपज है। आप जहां भी जाएंगे मानसिक धूप शांति, आनंद और शांति के फूल खिलने का कारण बनेगी। इसलिए, निडर होने की इच्छा पैदा करें अपनी मानसिक धूप खुद बनाएं।