भारतीय मूल के ऋषि सुनक के ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बनने पर यूपी की पूर्व मुख्यमंत्री और बसपा प्रमुख मायावती ने भारत में दलितों के राजनीतिक हक का सवाल उठाया है। उन्होंने अपने ट्वीट में लिखा है, ”भारतीय मूल के ऋषि सुनक के अंतत ब्रिटिश प्रधानमंत्री बनकर इतिहास रचने पर यहां कांग्रेस व बीजेपी में ट्विटर वॉर, आरोप-प्रत्यारोप व इधर-उधर की बात जारी है, किन्तु उस राजनीतिक हक व इंसाफ की बातें नहीं की जा रही हैं जिस कारण देश में अभी तक कोई दलित पीएम नहीं बन पाया है।”
मायावती के इस ट्वीट के बाद उस ऐतिहासिक घटना की याद आना लाजमी है, जब जगजीवन राम भारत के पहले दलित प्रधानमंत्री बनने से चूक गए थे।
…तो 1977 में ही भारत को मिल जाता पहला दलित PM
मायावती के समर्थक आज भी उन्हें प्रधानमंत्री बनाने की कसमें खाते रहते हैं। हालांकि चुनावों में उनकी पार्टी का प्रदर्शन लगातार खराब होने से वह प्रबल दावेदार साबित नहीं हो पायी हैं। साल 1977 में राजनीतिक परिस्थिति ऐसी बनी थी कि देश को पहला दलित प्रधानमंत्री मिलने वाला था, या कहें मिलते-मिलते रह गया था।
वरिष्ठ कांग्रेसी नेता जगजीवन राम इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल के बाद पार्टी से अलग हो गए थे। इमरजेंसी के बाद हुए 1977 के आम चुनाव में जनता पार्टी को बहुमत मिला था। इसमें जनसंघ, जॉर्ज फर्नांडिस की सोशलिस्ट पार्टी, जगजीवन राम की कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी, चौधरी चरण सिंह का भारतीय क्रांति दल शामिल थे।
आपातकाल विरोधी आन्दोलन के बाद हुए इस चुनाव में समाजवादी, गांधीवादी और दक्षिणपंथी सभी साथ आ गए थे। सबसे ज्यादा सीट जनसंघ घटक ने जीता था। उसके कुल 93 नेता सांसद चुने गए थे और जनसंघ बाबू जगजीवन राम को देश का पहला दलित प्रधानमंत्री बना संदेश देना चाहता था। सोशलिस्ट पार्टी के मधु दंडवते और जॉर्ज फर्नांडिस भी इसके पक्ष में थे। चंद्रशेखर (दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री) ने भी जगजीवन राम के नाम पर ही सहमति व्यक्त की थी।
प्रधानमंत्री पद की रेस में जगजीवन राम के अलावा मोरारजी देसाई और चौधरी चरण सिंह भी थे। जनसंघ के बाद सबसे ज्यादा सांसद (71) चौधरी चरण सिंह के भारतीय क्रांति दल के ही थे। चरण सिंह मोरारजी देसाई के खिलाफ थे, ऐसे में यह तय माना जा रहा था कि चरण सिंह भी जगजीवन राम का नाम आगे कर देंगे और देश को पहला दलित प्रधानमंत्री मिल जाएगा।
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लेकिन बाद में पता चला कि चरण सिंह मोरारजी देसाई के साथ-साथ जगजीवन राम के नाम पर भी सहमत नहीं है। उधर लालकृष्ण आडवाणी मोरारजी के पक्ष में माहौल बना रहे थे। इस बीच इंदिरा सरकार में रहते हुए जगजीवन राम द्वारा पेश किया गया इमरजेंसी के प्रस्ताव को भी ऊपर किया जाने लगा। कुल मिलाकर माहौल जगजीवन राम के खिलाफ बनने लगा। परिस्थिति को भांपते हुए अस्पताल में भर्ती बाबू जगजीवन राम ने जयप्रकाश नारायण को पत्र लिखकर खुद ही मोरारजी का समर्थन कर दिया।