भारत के उच्चतम न्यायालय में कैदियों को वोट देने की मांग वाली जनहित याचिका दायर की गई थी। गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस पीएस नरसिम्हा, जस्टिस जेबी पारदीवाला की पीठ ने याचिका पर सुनवाई करने से ही इनकार कर दिया।
याचिका में क्या था?
जनहित याचिका में जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 62(5) को चुनौती दी गई थी। याचिकाकर्ता आदित्य प्रसन्ना भट्टाचार्य का मानना है कि जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 62(5) को असंगत, अनुचित और भेदभावपूर्ण बताया था। उनका तर्क था इस प्रावधान के कारण सिविल जेल में बंद कैदी भी वोट देने के अधिकार से वंचित हैं। इस एक्ट में अपराध की प्रकृति या दी गई सजा की अवधि के आधार पर कोई वर्गीकरण नहीं है। इस तरह यह एक्ट संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत प्राप्त समानता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है।
याचिकाकर्ता का यह भी कहना था कि संविधान के अनुच्छेद 326 के तहत मतदान का अधिकार एक संवैधानिक अधिकार है। कैदियों को वोट देने से वंचित करना इसका उल्लंघन है।
सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?
ज्यूडिशियरी से जुड़ी खबर देने वाली वेबसाइट ‘लाइव लॉ’ एक रिपोर्ट के मुताबिक, जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 62(5) को चुनौती देने वाली इस याचिका को अदालत ने यह कहते हुए सुनने से इनकार कर दिया कि सुप्रीम कोर्ट पहले ही दो अलग-अलग मौकों पर धारा 62(5) को बरकरार रख चुकी है। सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने पूछा कि इन फैसलों के मद्देनजर, हमें इस मुद्दे को फिर से क्यों खोलना चाहिए?
मतदान को लेकर क्या है कानून?
वोट देने का अधिकार संवैधानिक अधिकार है। यह अधिकार संविधान का अनुच्छेद 326 प्रदान करता है। हालांकि पिछले साल चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में मतदान के अधिकार को संवैधानिक अधिकार मानने से इनकार कर दिया था और कहा था कि वोटिंग केवल वैधानिक अधिकार है। इसके बाद जज ने कोर्ट में ही निर्वाचन आयोग की तरफ से पेश हुए वकील को संविधान का अनुच्छेद 326 पढ़वा दिया।
इस तरह अब भी मतदान का अधिकार संवैधानिक अधिकार है। लेकिन लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 62(5) कुछ लोगों को इस अधिकार से वंचित करता है। इसमें पुलिस द्वारा कानूनी हिरासत में लिए गए, दोषी ठहराए जाने के बाद जेल में सजा काट रहे नागरिकों के साथ-साथ विचाराधीन (जिसे अदालत ने किसी मामले में दोषी नहीं पाया) कैदी भी शामिल हैं। जबकि जमानत पर जेल से निकला कोई दोषी मतदान कर सकता है।
जेलों में कितने विचाराधीन कैदी?
कैदियों के मतदान में शामिल नहीं होने से एक बड़ी संख्या लोकतंत्र की प्रमुख गतिविधि में शामिल नहीं होती। भारतीय जेलों में बंद कुल कैदियों में 77 प्रतिशत अंडरट्रायल यानी विचाराधीन हैं। नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो की ताजा रिपोर्ट (2021) के मुताबिक, 31 दिसंबर 2021 तक देश की कुल 1,319 जेलों में कुल 5,54,034 कैदी थे। इसमें से 77.1 प्रतिशत यानी 4,27,165 कैदी ऐसे थे, जिनका दोष अभी साबित नहीं हुआ। अंडरट्रायल कैदियों की संख्या साल दर साल बढ़ती जा रही है। सिर्फ एक साल में विचाराधीन कैदियों की संख्या 15 प्रतिशत बढ़ गई है।
लेकिन इस तरह के कैदी कर सकते हैं मतदान
संविधान का अनुच्छेद 22 गिरफ्तार या हिरासत में लिये गए लोगों को मनमानी गिरफ्तारी और नजरबंदी के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करता है। इसी कानून के तहत पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए गए या हिरासत में रखा गए व्यक्ति को 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के सामने पेश करना होता है। इसी कानून के तहत पुलिस किसी व्यक्ति को वकील से परामर्श करने से नहीं रोक सकती।
यह सब निवारक निरोध के तहत आते हैं। इसी के तहत हिरासत में लिए गए व्यक्ति को डाक मतपत्रों के जरिए वोट देने का अधिकार है। लेकिन इसका इस्तेमाल सिर्फ ऐसी स्थिति में किया जाता है, जब किसी व्यक्ति को केवल संदेह के आधार पर इसलिए पुलिस हिरासत में रखा गया हो कि वह कोई अपराध कर सकता है या समाज को नुकसान पहुंचाने का प्रयास कर सकता है।