विधिशा कुंतमल्ला

कभी सार्क देशों (भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल, भूटान और मालदीव) ने नई दिल्ली में एक ‘वर्ल्ड क्लास’ यूनिवर्सिटी बनाने का सपना देखा था। सभी ने इसके लिए संसाधन जुटाने का वादा किया था। प्रस्ताव से लेकर आगे की तमाम कागजी प्रक्रियाओं से गुजरते हुए पांच साल की मशक्कत के बाद भारत का पहला ‘अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय’  खुल गया। नाम दिया गया South Asian University (SAU)। लेकिन वर्तमान में ये भयंकर आर्थिक संकट से गुजर रहा है। विश्वविद्यालय को इस संकट तक पहुंचाने में पाकिस्तान की भूमिका अहम है। पड़ोसी मुल्क ने पहली किश्त का भी पूरा पैसा नहीं दिया है और अब तक उस पर कुल 43 करोड़ का बकाया चढ़ गया है।

मनमोहन सिंह ने रखा था प्रस्ताव

साल 2005 की बात है। बांग्लादेश की राजधानी ढाका में 13वां सार्क शिखर सम्मेलन (13th SAARC Summit) चल रहा था। इसी सम्मेलन में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इंडिया के पहले “अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय” का महत्वाकांक्षी विचार प्रस्ताव के रूप में सहयोगी देशों के सामने रखा। इस विश्वविद्यालय का मकसद सार्क देशों के छात्रों और शोधकर्ताओं को विश्व स्तरीय सुविधा और प्रोफेशनल फैकल्टी उपलब्ध करना था।

पीएम के प्रस्ताव के बाद बांग्लादेश के प्रसिद्ध इतिहासकार, विद्वान और शिक्षाविद प्रोफेसर गौहर रिज़वी को SAU के लिए एक कॉन्सेप्ट पेपर तैयार करने का काम सौंपा गया था। सार्क देशों ने काफी विचार-विमर्श के बाद 04 अप्रैल 2007 को नई दिल्ली में आयोजित 14वें सार्क शिखर सम्मेलन के दौरान SAU की स्थापना के लिए इंटर-मिनिस्ट्रियल समझौता साइन हुआ।

भारत सरकार ने साल 2008 में SAU के लिए एक प्रोजेक्ट ऑफिस खोला। इसका मुख्य कार्यकारी अधिकारी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) के पूर्व कुलपति प्रोफेसर जीके चड्ढा को नियुक्त किया गया। SAU की स्थापना की देखरेख के लिए सभी सार्क देशों के सदस्यों वाली एक सार्क संचालन समिति का गठन किया गया था।

तत्कालीन विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी ने 26 मई, 2008 को दक्षिणी दिल्ली के मैदान गढ़ी (महरौली) में 100 एकड़ के भूखंड पर SAU परिसर की आधारशिला रखी। साल 2010 में थिम्पू में आयोजित 16वें सार्क शिखर सम्मेलन में कागजी प्रक्रिया को अंतिम रूप दिया गया और SAU ने अगस्त 2010 में छात्रों के लिए अपने दरवाजे खोल दिए।

अब विश्वविद्यालय की स्थापना के लगभग 13 साल बाद सदस्य देशों के पास विश्वविद्यालय का 100 करोड़ रुपये लंबित है। विश्वविद्यालय गंभीर वित्तीय संकट का सामना कर रहा है। साल 2010 में विश्वविद्यालय के कोष में 69 करोड़ रुपये था, जो इस साल 31 जुलाई में घटकर 1.23 करोड़ रुपये हो गया था।

सूत्रों के मुताबिक, 700 से अधिक छात्रों, सात विभागों में 56 शिक्षण कर्मचारियों और 42 गैर-शिक्षण कर्मचारियों के साथ विश्वविद्यालय को चलाने का वार्षिक खर्च 70 करोड़ रुपये से अधिक है।

विश्वविद्यालय ने इस आपात स्थिति से केंद्र को अवगत कराया है। सूत्रों के अनुसार, इस वित्तीय वर्ष में अब तक भारत को छोड़कर किसी भी सार्क देश ने विश्वविद्यालय के संचालन के लिए तय आर्थिक योगदान नहीं दिया है।

किस देश को कितना देना होता है योगदान?

समझौते के अनुसार, SAU के स्थायी परिसर के निर्माण का पूरा खर्च भारत सहित सदस्य देशों को वहन करना था। संस्थान को चलाने पर आने वाली लागत को सभी सार्क देशों को आपस में बांटना है। भारत को परिचालन लागत का 57.49% वहन करना है, पाकिस्तान को 12.9%, बांग्लादेश को 8.20%, श्रीलंका और नेपाल 4.9% और अफगानिस्तान, भूटान और मालदीव को कुल खर्च का 3.83% वहन करना है।

विश्वविद्यालय की स्थापना के बाद पहली बार, विश्वविद्यालय ने जुलाई के लिए संकाय वेतन में देरी की क्योंकि वह विदेश मंत्रालय (एमईए) द्वारा 2022-23 वित्तीय वर्ष के लिए 43 करोड़ रुपये के अपने प्रतिबद्ध योगदान से धन जारी करने का इंतजार कर रहा था। फिलहाल, यह 30 करोड़ रुपये की पहली किश्त से काम चला रहा है जिसे जुलाई में विदेश मंत्रालय द्वारा मंजूरी दी गई थी।

इंडियन एक्सप्रेस ने SAU के कार्यवाहक अध्यक्ष रंजन कुमार मोहंती, विश्वविद्यालय के प्रेस अधिकारी और विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता से संपर्क किया, लेकिन विश्वविद्यालय की वित्तीय स्थिति पर कोई आधिकारिक टिप्पणी नहीं मिली।

SAU के एक अधिकारी ने कहा, “विश्वविद्यालय को अपने संचालन के पहले चरण (2010-2018 के बीच) में किसी भी वित्तीय समस्या का सामना नहीं करना पड़ा। पाकिस्तान को छोड़कर सभी सदस्य देशों ने अपने हिस्से का भुगतान किया। पाकिस्तान को पहले चरण में लगभग 65 करोड़ रुपये का देना था, जिसका 3.6 करोड़ रुपये अभी भी लंबित है। समस्या दूसरे चरण (2019-2023) के दौरान शुरू हुई, जब अन्य देश भी अपने योगदान में अनियमित बरतनी शुरू की।”

किस देश पर कितना बकाया?

श्रीलंका- 11.6 करोड़ रुपये (2020 से अपना योगदान नहीं दिया)
अफगानिस्तान- 9 करोड़ रुपये (2020 से अपना योगदान नहीं दिया)
बांग्लादेश- 18 करोड़ रुपये (2020 से अपना योगदान नहीं दिया)
मालदीव- 6.9 करोड़ रुपये (2021 से अपना योगदान नहीं दिया)
भूटान- 1.8 करोड़ रुपये (2022 से अपना योगदान नहीं दिया)
भारत- 13 करोड़ रुपये (2022 से अपना योगदान नहीं दिया)
नेपाल- 2.1 करोड़ रुपये (2022 से अपना योगदान नहीं दिया)
पाकिस्तान- 43 करोड़ रुपये (2019 से अपना योगदान नहीं दिया)

श्रीलंका उच्चायोग के सूत्रों ने एसएयू को धन वितरित करने में देरी के लिए देश में महामारी और आर्थिक संकट को जिम्मेदार ठहराया है। नेपाल उच्चायोग के सूत्रों ने द इंडियन एक्सप्रेस को बताया, “हम नियमित रूप से भुगतान कर रहे हैं और भुगतान को आगे बढ़ाने के लिए मंजूरी की एक लंबी प्रक्रिया है। हमें एसएयू से बिल प्राप्त हो गया है और हम आवश्यक भुगतान करने की प्रक्रिया में हैं।”

SAU
SAU का लंबित बिल

पैसा मिलने में देरी क्यों?

SAU एक अनोखा प्रयोग है। हालांकि शुरू से यह आशंका थी कि रीजनल जियो पॉलिटिक्स इसका कामकाज को प्रभावित करेगा। पाकिस्तान ने 2019 के बाद से लगभग पांच वर्षों में SAU की परिचालन लागत में कोई योगदान नहीं दिया है। पाकिस्तान पर 31 जुलाई, 2023 तक लगभग 43 करोड़ रुपये का बकाया हो गया था।

पाकिस्तान के इस रवैये का संबंध भारत के साथ उसके तनावपूर्ण रिश्तों से है। मुंबई आतंकवादी हमलों के बाद दोनों देशों के बीच संबंधों में तेजी से गिरावट आई। 2014 में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार आने के बाद से उरी, पठानकोट और पुलवामा जैसे आतंकवादी हमले हुए हैं। 2019 में जम्मू -कश्मीर से धारा 370 और 35 ए खत्म करने के बाद चीजें और बदतर हो गईं। रिश्ते इतने खराब हो चुके हैं सार्क समूह 2015 के बाद से पाकिस्तान में शिखर सम्मेलन आयोजित करने में सक्षम नहीं है।

द इंडियन एक्सप्रेस द्वारा SAU के वित्तीय रिकॉर्ड के अध्ययन से पता चला है कि उसे 1 जनवरी, 2019 से 31 जुलाई, 2023 के बीच सार्क देशों और छात्रों द्वारा दिए गए फीस से कुल 224 करोड़ रुपये प्राप्त हुए। विश्वविद्यालय को अपने कॉर्पस फंड में कटौती करने के लिए मजबूर होना पड़ा है। इस अवधि में SAU ने वेतन और अन्य चीजों पर 288 करोड़ रुपये खर्च किए।

पैसों की तंगी से जूझ रहे विश्वविद्यालय ने विदेश मंत्रालय को फरवरी में SOS भेजा था। इसकी एक प्रति इंडियन एक्सप्रेस के पास भी है। आपात स्थिति की जानकारी देते हुए विश्वविद्यालय ने जो पत्र लिखा था, उसमें बताया गया है कि यूनिवर्सिटी अपने दिन-प्रतिदिन की जरूरतों को पूरा करने के लिए अपने कॉर्पस फंड से पैसा निकाल रहा है, क्योंकि परिचालन बजट में कोई फंड नहीं है।

विश्वविद्यालय ने लिखा है कि सार्क देशों के योगदान की कमी वित्तीय संकट को बढ़ा रही है। SAU ने विदेश मंत्रालय से अनुरोध किया कि वह “सदस्य देशों पर अपना योगदान जारी करने के लिए दबाव डालें… और भारत सरकार भी अपना योगदान जारी करे।

सरकार का क्या कहना है?

सरकारी सूत्रों ने द इंडियन एक्सप्रेस को बताया, “SAU एक अंतरसरकारी संगठन है। यह पूरी तरह से भारत सरकार के दायरे में नहीं आता है। हम (भारत) नियमित रूप से परिचालन लागत में अपने हिस्से का योगदान दे रहे हैं। हम विश्वविद्यालय को चलाने में जो संभव है, सब कुछ कर रहे हैं। लेकिन अगर बोर्ड में शामिल अन्य देश विश्वविद्यालय का महत्व नहीं समझ रहे हैं तो हम इसमें और मदद नहीं कर सकते।”

सरकारी सूत्रों ने पुष्टि की कि SAU के गवर्निंग बोर्ड में प्रत्येक सार्क देशों के दो प्रतिनिधि हैं। दिसंबर 2017 से बोर्ड की कोई बैठक नहीं हुई है। इस प्रकार विश्वविद्यालय के अध्यक्ष का चुनाव रुका हुआ है। SAU की अध्यक्ष कविता ए शर्मा के 2019 में सेवानिवृत्त होने के बाद से कोई स्थायी प्रमुख नहीं है। विश्वविद्यालय में कोई स्थायी उपाध्यक्ष और रजिस्ट्रार भी नहीं है।

सार्क देशों के छात्रों की संख्या हुई है कम  

इस साल 16 जून को संस्थान के फैकल्टी मेंबर्स ने एक दूसरे को जो ईमेल भेजा है, उससे पता चलता है कि SAU दक्षिण एशियाई छात्रों के बीच लोकप्रियता खो रहा है। ईमेल में लिखा है, सामान्य तौर पर पूरे विश्वविद्यालय के लिए एमए में नामांकन की संख्या अच्छी नहीं है। 339 सीटें थी। लेकिन सिर्फ 163 छात्रों ने ही दाखिला लिया। किसी दक्षिण एशियाई छात्र के न होने की स्थिति में विश्वविद्यालय ने शेष खाली सीटें भारतीय छात्रों को देने का निर्णय लिया है।”

इंडियन एक्सप्रेस ने टेलीफोन और टेक्स्ट संदेशों के माध्यम से पाकिस्तान, मालदीव, भूटान और बांग्लादेश के उच्चायोगों से संपर्क किया, लेकिन कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं मिली।