गुरुदत्त (9 जुलाई, 1925-10 अक्तूबर 1964)

सचिन देव बर्मन, वहीदा रहमान, गुरु दत्त घनिष्ट रूप से एक दूसरे से जुड़े थे और समय के साथ सफलता हासिल कर रहे थे। पहले देव आनंद और फिर गुरु दत्त ने अपनी फिल्म कंपनियां खोली और व्यस्त होते चले गए। गुरु दत्त ने बतौर निर्देशक पहली फिल्म ‘बाजी’ (1951) बनाई तो उसमें बर्मन दादा का संगीत था। ‘सीआइडी’ (1956) के बाद गुरु दत्त निर्देशित एक भी फिल्म ऐसी नहीं रही जिसमें वहीदा रहमान न हो। मगर वक्त का सितम यह था कि एक एक करके सब व्यस्त होते और बिछड़ते चले गए।

वाकया 1959 का है। बतौर निर्देशक गुरु दत्त की आखिरी फिल्म ‘कागज के फूल’ के दौरान संगीतकार सचिन देव बर्मन और गुरु दत्त के रिश्तों में खटास आ गई थी। बर्मन और गुरु दत्त इससे पहले ‘बाजी’ (1951), ‘जाल’ (1952) के अलावा ‘प्यासा’ (1957) जैसी क्लासिक फिल्म साथ कर चुके थे। ‘कागज के फूल’ बननी शुरू हुई, तो बर्मन दादा ने गुरु दत्त से कहा कि वह यह फिल्म न बनाएं। दादा नहीं चाहते थे कि गुरु दत्त यह फिल्म बना कर परेशानी मोल लें। एक शुभचिंतक के रूप में बर्मन दादा ने यह सलाह दी थी। उनका कहना था कि यह फिल्म मत बनाओ, यह तुम्हारी कहानी है। इस पर गुरु ने बर्मन दादा से कहा कि वह अपना काम करें और उन्हें अपना काम करने दें।

त्रिपुरा के राजघराने से संबंध रखने वाले बर्मन दादा से इस अंदाज में कभी किसी ने बात नहीं की थी। यह बात उन्हें इतनी खटकी कि उन्होंने तय किया कि वह फिर कभी गुरु दत्त की फिल्म में काम नहीं करेंगे। और फिर कभी दोनों ने साथ काम नहीं किया। गुरु दत्त ‘बाजी’, ‘आर पार’, ‘मिस्टर एंड मिसेज 55’ जैसी हिट फिल्में बना चुके थे। उन्होंने ‘बाजी’ से निर्देशक के रूप में शुरुआत की थी, जिसके निर्माता देव आनंद थे और बर्मन दादा संगीतकार। ‘बाजी’ ने सामाजिक अपराध फिल्मों का दौर शुरू किया था। गुरु दत्त 1954 में ‘आर पार’ से निर्माता बने, जो फिल्म हिट थी। बतौर निर्माता दूसरी फिल्म ‘सीआइडी’ में उन्होंने वहीदा रहमान को मौका दिया था।

गुरु दत्त की नियति थी कि एक के बाद एक उन्हें उनसे दूर होते चले गए। यहां तक कि उनकी पत्नी गीता दत्त भी उनके साथ रहने के बजाय अलग फ्लैट में रहने लगी थीं। गुरु धीरे-धीरे दत्त निहायत अकेले हो गए थे। 1956 की ‘सीआइडी’ के बाद देव आनंद इतने व्यस्त हुए कि गुरु दत्त ने फिर उनके साथ काम नहीं किया। उसके बाद गुरु दत्त ने आधा दर्जन फिल्में बनाईं।। सभी में वह खुद ही हीरो थे।1959 की ‘कागज के फूल’ के बाद बर्मन दादा और गुरु दत्त ने फिर कभी साथ काम नहीं किया। 1962 में ‘साहिब बीवी और गुलाम’ के बाद वहीदा रहमान और गुरु दत्त एक दूसरे से दूर हो गए। वहीदा उनके लिए शुभंकर थी और वह उनसे दूर जा चुकी थी।

1959 की ‘कागज के फूल’ बनाने के बाद गुरु दत्त निर्देशक के रूप में खत्म हो गए थे। उन्होंने फिर कोई फिल्म निर्देशित नहीं की। उनकी कंपनी में बेहतरीन फिल्में बनी, मगर वे गुरु दत्त ने दूसरे निर्देशकों से निर्देशित करवाईं। जैसे एम सादिक से ‘चौदहवीं का चांद’, (1960) अपने लेखक अबरार अल्वी से ‘साहिब बीवी और गुलाम’ (1962) तथा शाहिद लतीफ (इस्मत चुगताई के शौहर) से ‘बहारें फिर भी आएंगी’ (1966) बनवाई। गुरु दत्त की मौत के कारण ‘बहारें फिर भी आएंगी’ लटक गई। तब उनकी जगह धर्मेंद्र को साइन किया गया। गुरु दत्त ने जिन दृश्यों की शूटिंग थी, उन दृश्यों को धर्मेंद्र पर फिर से फिल्माया गया। मगर फिल्म पिट गई।

गुरु दत्त की ‘लव एंड गॉड’ भी उनकी मौत के कारण लटकी तो के आसिफ ने गुरु दत्त के स्थान पर संजीव कुमार को मजनूं बना दिया। इसे बनने में 23 साल लगे। निर्माता केसी बोकाड़िया की कोशिशों से जब फिल्म रिलीज हुई तब तक गुरु दत्त, संजीव कुमार ही नहीं इसके निर्देशक के आसिफ का भी इंतकाल हो चुका था।