श्रीशचंद्र
पता नहीं दलाई लामा कुछ समय पहले किस झोंक में कह गए कि उन्हें किसी महिला के तिब्बतियों की धर्मगुरु बनने में एतराज नहीं है बशर्ते वह खूबसूरत हो। इस टिप्पणी पर उनकी जो छीछालेदर होनी थी सो हुई लेकिन किसी महिला को उसके बुद्धि कौशल की बजाए आकर्षक चेहरे के आधार पर स्वीकार्य मानने की अवधारणा हमेशा से दुनिया भर में रही है। खासतौर से फिल्मों में तो हीरोइन के लिए सुंदर होना पहली शर्त माना जाता है। उसमें अभिनय प्रतिभा है या नहीं, इसकी परवाह कम ही की जाती है। यह फलसफा सिर्फ भारतीय फिल्मों का ही नहीं है, दुनिया के किसी भी देश में ऐसी फिल्में अपवाद के रूप में बनी हैं जिनमें सामान्य चेहरे मोहरे वाली महिला को केंद्रीय भूमिका मिली हो। हीरोइनों के लिए फिल्मों में प्रवेश की पहली शर्त ही उसकी आकर्षक व ग्लैमरस होना है।
परिणीति चोपड़ा ने पहली फिल्म ‘इशकजादे’ से अभिनय प्रतिभा के बल पर चलने का फैसला किया। उस चक्कर में अपनी फिगर और फिल्मों में अपनी आकर्षक उपस्थिति पर उन्होंने ध्यान नहीं दिया। एक अच्छी अभिनेत्री के रूप में उन्हें मान्यता मिल गई लेकिन स्टार नहीं बन पाईं। उन्हें नई फिल्में तक मिलनी बंद हो गईं। नौ महीने वर्क आउट कर उन्होंने अपनी फिगर दुरुस्त की। अब उनका मानना है कि प्रतिभा के साथ-साथ हीरोइन का सुंदर दिखना भी जरूरी है।
हिंदी फिल्मों की बात करें तो कम ही फिल्मकार ऐसे हुए हैं जिन्होंने हीरोइन को उसकी प्रतिभा के हिसाब से प्राथमिकता दी। ऐसा ज्यादातर फिल्मों के एक खास तरह के फार्मूलों में बंध जाने की वजह से हुआ। 1931 में बनी पहली सावक फिल्म ‘आलमआरा’ के बाद से 90 फीसद फिल्मों में हीरोइन की उपस्थिति सजावटी रही है। पचास-साठ के दशक में जब कारुणिक पारिवारिक फिल्मों का दौर था, हीरोइन के रंग रूप पर नहीं, ज्यादा से ज्यादा मार्मिकता उड़ेल देने की उसकी क्षमता का ज्यादा इस्तेमाल हुआ। हालांकि उसमें खालिस अभियान के तत्व होने की बजाए अतिनाटकीय मेलोड्रामा मुखर रहा।
यह बहस काफी पुरानी है कि क्या सिर्फ ग्लैमरस चेहरे से ही कोई हीरोइन चल सकती है। अच्छे चेहरे मोहरे वाली हीरोइनों ने अपनी उत्तेजक भाव भंगिमाओं से सफलता पाई ही। वे चर्चा में भी ज्यादा रहीं। बेगम पारा को तो अमेरिका पत्रिका ‘लाइफ’ के कवर पर जगह मिली। साठ के दशक के बाद से तो सिर्फ सौंदर्य के बल पर शर्मिला टैगोर, सायरा बानो, आशा पारिख, जीनत अमान, परवीन बावी आदि ने खासा तहलका मचाया। लेकिन ऐसी हीरोइनों में से ज्यादातर का करिअर लंबा नहीं खिंचा। शर्मिला टैगोर ने समय रहते परिस्थितियों को भांप लिया और अभिनय का दामन थाम लिया। इससे उनकी गाड़ी ज्यादा चल गई। आकर्षक चेहरे वाली अनगिनत हीरोइनें बीते सालों में सामने आई हैं। वे चर्चित हुईं लेकिन अभिनय के मामले में शून्यता उन्हें जल्दी ही ले डूबी। उसी हीरोइन की पारी लंबी और सफल रही जिसने सौंदर्य और प्रतिभा में तालमेल बनाए रखा। इसमें अपवाद भी रहा है। स्मिता पाटील, जया बच्चन, शबाना आजमी आदि ने प्रतिभा का ज्यादा सहारा लिया लेकिन खाली अभिनय प्रतिभा उन्हें स्थापित नहीं कर पाई। इसके लिए उन्हें कई फिल्मों में आकर्षक दिखने की जहमत उठानी पड़ी।
पिछले डेढ़ दशक में सौंदर्य प्रतियोगिता जीतने वाली सुंदरियों के लिए फिल्मों में प्रवेश काफी आसान हुआ है। ‘मिस वर्ल्ड’ या ‘मिस यूनिवर्स’ का खिताब जीतने पर ही पलक पांवड़े नहीं बिछे, ‘मिस इंडिया’ बन जाने पर भी अच्छा खासा मौका मिल गया। ऐसी एक दर्जन से ज्यादा सुंदरियों ने खासी धमक के साथ फिल्मों में कदम रखा। लेकिन चल पाईं जूही चावला, ऐश्वर्य राय, सुष्मिता सेन व प्रियंका चोपड़ा ही। बाकी का सफर शुरुआती चमक के बाद झूलता ही रहा। लारा दत्ता, डायना हेडन, युक्ता मुखी, नेहा धूपिया आदि तो कुछ मिसाल है।