फाफड़ा एक गुजराती व्यंजन है। आजकल की भाषा में स्नैक्स। इस फिल्म में जीनल (सोनाक्षी सिन्हा) भी गुजराती लड़की है और अपने को ड्रेस डिजाइनर बताती है। बात बात पर गुजरात और फाफड़ा का नाम लेती है। लेकिन अपने यहां उसे न तो ज्यादा काम मिलता है और न शोहरत। उधर पंजाब में बंदा है तेजी (दिलजीत दोसांझ)। वो आईने के सामने खड़ा होकर हिंदी फिल्मों के हीरो के डॉयलाग की प्रैक्टिस करता रहता है। इसी कारण उसके दोस्त ही उसे महाबोर समझते है। उधर न्यूयॉर्क में आइफा अवार्ड्स की कंपनी में काम करनेवाली सोफी (लारा दत्ता) को लगता है कि उसका बॉस (बोमन ईरानी) उसे खास अहमियत नहीं दे रहा है। इसलिए वो पुरस्कार समारोह को नाकामयाब बनाने की योजना बनाती है और मदद के लिए जीनल व तेजी को अमेरिका बुलाती है। जीनल का अरमान है कि सलमान खान के लिए कपड़े डिजाइन करे और तेजी की इच्छा है कि बतौर अभिनेता उसका सिक्का जम जाए।
उधर अर्जुन (करण जौहर) नाम का खलनायक है जो असली करण जौहर को अगवा करना चाहता है। वजह ये कि करण जौहर की रोमांटिक फिल्मों की वजह से उसका धंधा मंदा पड़ गया है। सोफी और अर्जुन की आपस में मिलीभगत है। अब क्या होगा? क्या ये दोनों कामयाब होंगे? क्या अर्जुन करण जौहर को अगवा कर पाएगा? क्या जीनल सलमान खान के लिए जैकेट डिजाइन कर पाएगी और क्या तेजी अपना सिक्का बॉलीवुड की बड़ी हस्तियों के सामने मनवा पाएगा?
फिल्म एक कॉमेडी है और हंसी के कुछ फाफड़े लोगों के सामने परोसती है। लेकिन ठहाके वाली हंसी इसमें कम हैं। एकाध जगहों को छोड़कर। जैसे रितेश देशमुख और करण जौहर के अवार्ड समारोह के एंकरिंग वाला जो सीन है उसमें जबरस्त हंसी है। पर बाकी जगहों पर दर्शक सिर्फ मुस्कुरा के रह जाता है। कुल मिलाकर फिल्म ये साबित करती है कि करण जौहर अभी भी फिल्मों में अभिनय के लिए जोर मार रहे हैं।
‘बांबे वेलवेट’ से उन्होंने अभिनय की दुनिया में पदार्पण किया था और खराब एक्टर होने का सिक्का मनवा लिया था। बिला शक। ‘वेलकम टू न्यूयॉर्क’ के बाद जब भी किसी निर्देशक को अपनी फिल्म पिटवाने का शौक चढ़ेगा वह करण को अपनी फिल्म में बतौर जरूर रखेगा। जहां तक सोनाक्षी सिन्हा और दिलजीत दोसांझ का मामला है ये दोनों शुरू से मसखरी में लगे रहते हैं। पर वहां भी जानी लीवर के मात नहीं कर पाए। ‘वेलकम टू न्यूयॉर्क’ में हंसी की फुलझड़ियां जरूर हैं। इतने से अगर दर्शक को संतोष हो जाए तो अलग बात है। निर्देशक ने सलमान खान, सोहेल खान, अरबाज खान, शाहिद कपूर, राना डग्गूब्ती और अन्य फिल्मी हस्तियों को इसमें रखकर दशर्कों को लुभाने की कोशिश की है। वैसे ये फिल्म रॉबर्ट एल्टमैन की अमेरिकी फिल्म ‘प्रेट -ए- पोर्टर’ से प्रभावित है।
लड़का चाल चले तो ठीक, लेकिन अगर लड़की वही करे तो चालबाज, यानी खलनायिका- निर्देशक लव रंजन की फिल्म ‘सोनू के टीटू की स्वीटी’ का मूल विचार यही है। लव रंजन की पुरानी फिल्में भी इसी विचार के आधार पर बनी हैं। उनकी फिल्मों में लड़कियां चालाक और धूर्त दिखती हैं और लड़के भोलेबाबा। हालांकि चालाकियां लड़के भी करते हैं लेकिन अपने भोले दोस्तों को बचाने के लिए। निर्देशक का जोर इस बात पर रहता है कि लड़के को लड़की से बेहतर और चरित्रवान साबित किया जाए। ‘सोनू के टीटू की स्वीटी’ यहीं संदेश देती है।
इस फिल्म में सोनू (कार्तिक आर्यन) नाम का एक नौजवान है जो टीटू (सनी सिंह) नाम के दूसरे नौजवान का दोस्त है। सोनू और टीटू बचपन के दोस्त हैं। सोनू टीटू के घर पर ही रहता है और उसके परिवार का सदस्य जैसा है। टीटू के घरवाले उसकी शादी स्वीटी (नुसरत भरूचा) नाम की एक लड़की से तय करते हैं। सोनू को लगता है कि ये लड़की तो चालबाज है और इसी कारण भोलेलाल टीटू के लिए सही नहीं है। अब क्या? सोनू लग जाता है इस शादी को रोकने में क्योंकि दोस्त को चालू लड़की से बचाना है। पर स्वीटी भी कम नहीं है। वह भी अपनी चालें चलती है। क्या सोनू अपनी चाल में सफल होगा और इस होनेवाली शादी को रोक पाएगा- इसी कश्मकश पर पूरी फिल्म टिकी है।
फिल्म में संयुक्त परिवार दिखाया गया है लेकिन निर्देशक के मन में संयुक्त परिवार को लिए कोई सम्मान नहीं है। आलोकनाथ ने टीटू के दादा की घसीटा हलवाई की भूमिका निभाई है। लेकिन संयुक्त परिवार के कायदे के मुताबिक सोनू कभी टीटू के दादा को दादा नहीं कहता बल्कि हमेशा घसीटे कहके बुलाता है। और घसीटा को भी इस बात पर कोई आपत्ति नहीं है। उल्टे वो सोनू को दारू पिलाता रहता है। क्या आपने कभी देखा है ऐसा परिवार? न देखा हो तो कोई बात नहीं, लव रंजन की फिल्म में मिल जाएंगे। निर्देशक ने खामखां फिल्म के निर्माण का बजट बढ़ाने के लिए अम्सस्टर्डम की यात्रा भी दिखा दी है। हालांकि उससे फिल्म की गुणवत्ता में कोई बढ़ोतरी नहीं होती। फिल्म में सनी सिंह को ऐसा मासूम दिखाया गया जो परम मूर्ख की तरह लगता है।
क्टंग के नाम पर कुछ खास नहीं है। सभी कलाकार इस मामले में सिफर है। यहां तक कि आलोकनाथ जैसे वरिष्ठ कलाकार की मौजूदगी भी निरर्थक दिखती है। उनकी जगह कोई और घसीटा होता तो भी फर्क नहीं पड़ता। फिल्म के कुछ गाने ठीकठाक हैं। निर्देशक का मकसद ये दिखता है कि युवा वर्ग को लुभाया जाए। लेकिन इसमें तो अच्छा रोमांस भी नहीं है। क्या युवा इसे खास तौर पर पसंद करेगा?