मुंबई के एक अपार्टमेंट में एक औरत रहती है। नाम के सुलोचना (विद्या बालन) जिसे प्यार से उसका पति अशोक (मानव कौल) सुलुु कहता है। अशोक एक कपड़ा सिलाई की कंपनी में काम करता है। दोनों का एक बेटा भी है। प्रणव जो स्कूल में पढ़ता है। सुलोचना ऊर्फ सुलुु पूरी तरह से हाऊसवाइफ है। उसकी बहनें बैंक में नौकरी करती हैं लेकिन सुलोचना तो बारहवीं भी नहीं कर पाई थी इसलिए नौकरी का सवाल ही नहीं है। बहनें ताना देती हैं पर सुलोचना उन तानों को दिल पर नहीं लेतीं। पर वह उत्साही है और मुंह में चम्मच पर नींबू रखकर चलने की प्रतियोगिता जीत चुकी है। साथ ही एक रेडियो प्रतियोगिता में प्रेशर कूकर भी। इसी प्रेशर कूकर को लेने जब वो रेडियो स्टेशन जाती है तो देखती है कि रेडियो जॉकी बनने के लिए आवेदन करने का पोस्टर लगा हुआ है। उसकी कोशिशों से उसे ये नौकरी भी मिल जाती है। उसे तुम्हारी सुलुु नाम से शो करना है। और उसके बाद शुरू होता है परेशानियों का सिलसिला। सुलुु यानी सुलोचना को रात का शो करना है जिसमें उसे तरह-तरह के बेवड़ों से बात करनी है। उसका पति इस बात से नाराज है और बहनें भी। सुलोचना पर दबाव बढ़ रहा है कि वो नौकरी छोड़ दे। क्या वो ऐसा करेगी या रेडियो जॉकी बनी रहेगी।
फिल्म एक ऐसे विषय पर है जिसका संबंध मध्यवर्गीय औरतों की आकांक्षाओं और परेशानियों से है। खासकर उन महिलाओं से जो हाउसवाइफ हैं और बच्चों के बड़े हो जाने के बाद किसी नौकरी या व्यवसाय से पैसा कमाना चाहती हैं। पर ये आसान नहीं होता और राह में कई मुश्किलें आती हैं। एक तो उम्र। ऐसी औरतें प्रौढ़ होने के करीब होती हैं इसलिए नौकरी के बाजार में उनकी कोई पूछ नहीं होतीं। और अगर कोई नौकरी मिल भी जाए तो आसपास के लोग उसे अजीब निगाह से देखने लगते हैं। सुलोचना की रात की नौकरी से न तो उसकी बहनें खुश और न पति। हालांकि पति की माली हालत खराब है और वो अपना खराब टीवी सेट भी ठीक कराने की स्थिति में नहीं है। सुलोचना के साथ जो हालात हैं वो आम महिलाओं को भी भुगतना पड़ता है। इसलिए ये फिल्म में हमारे सामाजिक जीवन की एक हकीकत है।
इतना तक तो ठीक है। लेकिन कोई फिल्म के विषय के अच्छे हो जाने से ही दमदार नहीं हो जाती। कहानी कैसे कही गई है, इस पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है। और यही वो पहलू है जो तुम्हारी सुलुु फिल्म में कुछ झोल पैदा करता है। सुलोचना की नौकरी मिलने तक तो सब कुछ ठीक ठाक रहता है लेकिन उसके बाद फिल्म थोड़ी पकाऊ हो जाती है, यानी धीमी। कुछ दृश्य तो बेकार हैं जैसे अशोक यानी मानव कौल की कंपनी में झगड़े वाले अंश। ये कुछ अधिक ही लंबे हो गए हैं और उनका फिल्म के मूल विषय से ज्यादा रिश्ता नहीं रहता है। फिल्म का अंत भी थोड़ा उलझाऊ किस्म का हो गया है।
विद्या बालन की यह एक और शानदार फिल्म हो जाती। पर होते होते रह गई है। उनका अभिनय तो बहुत अच्छा है और उनका किरदार भी बड़ा है। लेकिन मध्यांतर के बाद जिस तरह की नाटकीय परिस्थितियां होनी चाहिए जिसमें मुख्य कलाकार यानी विद्या बालन के चरित्र का विकास होता वैसा नहीं हो सका। फिर भी शहरी मध्यवर्गीय तबके की महिलाएं इस फिल्म से एक जुड़ाव महसूस कर सकती हैं। मैं कर सकती हूं, सुलुु यानी सुलोचना बार बार कहती है। ये एक तरह का मंत्र या प्रेरक वाक्य है। पर प्रेरणादायी कहानियां भी थोड़ी मजेदार ढंग से कही जानी चाहिए।