विनोद खन्ना (निधन, 27 अप्रैल) सिर्फ ‘मुकद्दर का सिकंदर’, ‘मेरा गांव मेरा देश’ या ‘दयावान’ के कारण ही याद नहीं किए जाएंगे, बल्कि उस आत्मविश्वास के लिए भी याद किए जाएंगे जिसके दम पर वह अभिनेता बने, चोटी पर पहुंचे और एक दिन सब कुछ छोड़छाड़ कर शांति की तलाश में ओशो की शरण में अमेरिका चले गए। सिनेमा की दुनिया में नाम पैदा करने का सपना देखने वाला कोई भी आम युवा विनोद खन्ना के जीवन से सबक ले सफलता प्राप्त कर सकता है। ओम पुरी (छह जनवरी) ‘आक्रोश’ जैसी फिल्म या ‘तमस’ जैसे धारावाहिक के जरिये ही याद नहीं रखे जाएंगे बल्कि इसलिए भी याद रखे जाएंगे कि सात साल के लड़के ने विपरीत स्थितियों पर मात देकर हालातों को अपने पक्ष में कैसे बनाया। जब पिता को सीमेंट चोरी के आरोप में जेल जाना पड़ा तो ओम पुरी ने चाय की दूकान पर काम किया और उनके भाई ने रेलवे स्टेशन पर कुलीगिरी की। फिर वह राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय पहुंचे। वहां से पुणे के फिल्म और टीवी इंस्टीट्यूट। फिर फिल्मों में। पुरी इसलिए याद किए जाएंगे कि 70 के दशक में उठे समांतर सिनेमा आंदोलन को उनका और नसीरुद्दीन शाह का मजबूत कंधा मिला था।
इसी साल 30 सितंबर को दुनिया को अलविदा कहने वालेटॉम आल्टर अमेरिकी मूल के ऐसे भारतीय अभिनेता थे जिनके जीवन में राजेश खन्ना की ‘आराधना’ ने क्रांति कर दी। अंग्रेजी और इतिहास पढ़ाने वाले शिक्षक का धाराप्रवाह हिंदी और उर्दू बोलने वाला यह बेटा आजीवन भारत-प्रेम में पगा रहा।
नयन भदभदे को शायद ही कोई जानता हो, मगर रीमा लागू (28 मई) को सभी जानते हैं। रंगमंच की अभिनेत्री मंदाकिनी भदभदे की बेटी नयन ने रंगमंच के अभिनेता विवेक लागू से शादी की और बन गई रीमा लागू। ‘कयामत से कयामत तक’ में जूही चावला और ‘मैंने प्यार किया’ में सलमान खान की मां बनने के बाद रीमा बॉलीवुड की सबसे खूबसूरत और सफल मां बनी।
शशि कपूर (4 दिसंबर) ने अमिताभ बच्चन के साथ मिलकर बॉक्स आॅफिस पर सफलता के कई इतिहास रचे। कपूर इसलिए पीढ़ियों तक याद किए जाएंगे कि फिल्मों से उन्होंने जो भी कमाया, वह बेहतरीन फिल्में बनाकर इसी फिल्मजगत में लगा दिया। लेखक, अभिनेता निर्देशक नीरज वोरा (14 दिसंबर) को सिनेमा प्रेमी ‘रंगीला’ या ‘हेराफेरी’ जैसी अपार सफल फिल्मों के लेखक के रूप में याद रखेगी। ‘खिलाड़ी 420’ और ‘फिर हेराफेरी’ जैसी फिल्मों का निर्देशन करने वाले वोरा को इसलिए भी याद किया जाएगा कि फिल्मजगत में लोग कैसे हिलमिल कर रहते हैं, एक दूजे की मदद करते हैं। बीते साल अक्तूबर में उन्हें ब्रेन स्ट्रोक के बाद एम्स में भर्ती किया गया था। वह जब कोमा में चले गए तो उनकी फिल्म ‘हेराफेरी’ के निर्माता फिरोज नाडियाडवाला ने उनके लिए अपने घर बरकत विला में आइसीयू बना दिया था।
2017 का साल उन कुंदन शाह (सात अक्तूबर) को भी स्मृतियों में बसा गया, जिनकी ‘जाने भी दो यारो’ ने राजनीति, लालफीताशाही और मीडिया का बेरहमी से पोस्टमार्टम किया। जिनके टीवी धारावाहिक ‘ये जो है जिंदगी’, ‘नुक्कड़’, ‘मनोरंजन’ और ‘वागले की दुनिया’ ने निम्न और मध्यमवर्गीय समाज के रोजमर्रा के जीवन को खूबसूरती से उंकेरा। कुंदन के बहाने हम इस देश में उस दौर को भी याद कर सकते हैं जिसमें सरकारी भ्रष्टाचार और लालफीताशाही के धुर्रे बिखेरने वाली फिल्म ‘जाने भी दो यारो’ में सरकार के वित्त पोषण से चलने वाली संस्था का पैसा लगा था। सरकारी पैसे से सरकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ आज कोई फिल्म बना सकता है? विचार करें।
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विनोद खन्ना, ओम पुरी, टॉम आल्टर, रीमा लागू, शशि कपूर, नीरज वोरा, कुंदन शाह

