निर्माता एनएन सिप्पी ने जब ‘फकीरा’ (1976) में डैनी को शशि कपूर का भाई बनाया तो डैनी ने हैरान होकर उनसे कहा कि क्या वह और शशि कपूर कहीं से भी भाई-भाई लगते हैं? तब सिप्पी ने कहा,‘इससे क्या फर्क पड़ता है। लोग लीटर या मीटर लेकर फिल्म को नापने नहीं आते।’ सिप्पी की बात सही साबित हुई। ‘फकीरा’ हिट हुई और लोगों ने इस तरफ ध्यान ही नहीं दिया। प्रेम और संगीत की बुनियाद पर खड़े हिंदी फिल्मों के संसार में ऐसे कई किस्से हैं जहां प्रेम और संगीत के सामने सब कुछ गौण हो गया। इसका एक और उदाहरण है फिल्म ‘नागिन’ का गाना ‘मन डोले मेरा तन डोले मेरा दिल का गया करार रे, ये कौन बजाए बांसुरिया…’। गाने में परदे पर लहराती नागिन और वैजयंतीमाला नजर आते हैं। मगर छह मिनट के इस गाने में कहीं भी बांसुरी नहीं बजी। जो बजा उसने इतिहास रच दिया और पीढ़ियों के दिलों पर राज किया। यह गाना सालों तक लोकप्रिय रहा।
80 के दशक तक इसने शादी-विवाहों में धूम मचा कर रखी। दरअसल संगीतकार-गायक हेमंत कुमार ने इसी फिल्म के गाने ‘जादूगर सैंया छोड़ो मेरी बैयां…’ के एक टुकड़े को उठाकर उसका गाने के रूप में विस्तार किया था। शुरुआत और अंत में क्लेवायलिन के टुकड़े (बीन की धुन) डाले और बीच में लता मंगेशकर की आवाज में ‘मन डोले…’ गाना फिट कर दिया। लोगों को लगता है कि इस गाने में बीन (पुंगी) की आवाज है मगर क्लेवायलिन और हारमोनियम के बेस पर यह पूरा गाना तैयार हुआ। इसमें क्लेवायलिन बजाई थी कल्याणजी ने। एक तरह से यह गाना यूरोपियन पेटी और भारतीय पेटी से निकली पुंगी यानी बीन की आवाज पर बना था और फिल्म रिलीज के दो सालों तक देश भर में गूंजता रहा था।
इलेक्ट्रॉनिक्स वाद्य यंत्रों का इस्तेमाल बीसवीं सदी की शुरुआत से होने लगा था मगर उसे एक मोड़ मिला 1947 में। फ्रांस के शहर वार्साय में कॉन्स्टंट मार्टिन ने क्लेवायलिन तैयार की। यह वायलिन जैसा नहीं बल्कि भारतीय पेटी यानी हारमोनियम या पियानो के की-बोर्ड जैसा वाद्य यंत्र था। क्लेवायलिन कल्याणजी के कारोबारी पिता ने उन्हें लाकर दिया था। कल्याणजी उसे खुद भी बजाते थे और कभी कभार अपने खास लोगों को साढ़े तीन सौ रुपए लेकर बजाने के लिए दे देते थे। ‘मन डोले…’ गाने में हेमंत कुमार के सहायक रहे रवि ने भारतीय हारमोनियम पर सुर दिए थे और कल्याणजी ने क्लेवायलिन के जरिये बीन की धुन निकाली थी।
1954 में हिंदी फिल्मों के लिए क्लेवायलिन तो अनोखा वाद्ययंत्र था ही, रवि की हारमोनियम भी विशेष थी। उन दिनों वैसी हारमोनियम सिर्फ तीन लोगों-रवि, गायक मोहम्मद रफी और संगीतकार मदन मोहन-के पास थी। बाद में रवि और कल्याणजी दोनों संगीतकार बने। कल्याणजी ने ‘सम्राट चंद्रगुप्त’ (1958) से बतौर संगीतकार करियर की शुरुआत की। बाद में अपने भाई आनंदजी के साथ 1959 में ‘सट्टा बाजार’ और ‘मदारी’ जैसी फिल्मों में जोड़ी बनाई। इस जोड़ी ने लगभग 250 फिल्मों में सैकड़ों लोकप्रिय गाने बनाए। ‘नागिन’ के इस गाने ने पीढ़ियों का सफर किया है। आज भी कभी-कभी किसी बारात में इस गाने पर लोगों को डांस करते देखा जा सकता है।

