Mahabharat 28th April Episode online Updates: पांडवों के शांतिदूत बनकर हस्तिनापुर पहुंचे भगवान श्री कृष्ण ने दुर्योधन के भोजन निमंत्रण को अस्वीकार कर दिया। जिसके बाद दुर्योधन क्रोधित हो गया लेकिन वासुदेव से कुछ नहीं कह पाया। इसके बाद दुर्योधन ने कर्ण और शकुनि से कहा कि शांतिदूत बनकर आए कृष्ण ने अगर कल राजसभा में कुछ उल्टे-सीधे शब्दों का इस्तेमाल किया तो मैं इस ग्वाले को उसी वक्त बंदी बना लूंगा। जिसके बाद शकुनि ने उसे समझाया कि वासुदेव से ऐसे बात मत करो।
वहीं इससे पहले श्री कृष्ण से मदद मांगने गए दुर्योधन ने द्वारिकाधीश की जगह उनकी नारायणी सेना मांगी ली थी। जिसके बाद उसी कक्ष में मौजूद अर्जुन ने नारायणी सेना लेने से इनकार करते हुए स्वयं नारायण को मांग लिया। जिसके बाद श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि मैं इस युद्ध में मैं तुम्हारा सारथी बनूंगा। अर्जुन ने कहा आपने ये कह कर मुझ पर बहुत बड़ा एहसान किया है। जिसके बाद भगवान ने कहा कि मैंने तो जन्म ही तुम्हारा सारथी बनने के लिए लिया है पार्थ महाभार के इस युद्ध में मैं अवश्य तुम्हारा सारथी बनूंगा।
भगवान से पहले पांडवों के शांतिदूत बनकर गए राजा द्रुपद के राज पुरोहित ने हस्तिनापुर में युधिष्ठिर का इंद्रप्रस्थ वापस करने की बात पर धृतराष्ट्र ने उससे सोचने के लिए समय मांगा था। लेकिन राजदूत के वापस जाने के बाद उसने अपने सारथी संजय को कक्ष में बुला कर अपनी व्यथा सुनाई और उससे कहा कि दुर्योधन हठी स्वभाव का है और वो युधिष्ठिर को इंद्रप्रस्थ देने की बात को कभी नहीं मानेगा। तुम मेरा संदेशा लेकर पांडु पुत्रों के पास जाओ और उनसे कहो कि वो जहां हैं वहीं सुखी रहें। संजय के इस संदेश को जब युधिष्ठिर ने सुना तो धर्मराज क्रोधित होकर बोले की, महाराज से कहना हम युद्ध नहीं चाहते हैं, इस लिए हम इंद्रप्रस्थ में वापस जाकर द्यूत सभा में जो कुछ हुआ उसे भूलने के लिए तैयार हैं।
वहीं युधिष्ठिर ने संजय से कहा कि हस्तिनापुर के महाराज को जा कर ये संदेशा दे दो कि हमें गुरुद्रोण और पितामह भीष्म जैसे योद्धाओं के नाम से भयभीत करने का प्रयत्न ना करें। क्योंकि विराट देश की तरफ से यु्द्ध लड़ते हुए अर्जुन ने अकेले ही पूरी हस्तिनापुर की सेना को रणभूमि छोड़ने पर मजबूर कर दिया था। फैसला महाराज के हाथ में हैं वो युद्ध चाहते हैं या शांति से इंद्रप्रस्थ वापस देना चाहते हैं।
शांतिदूत बनकर हस्तिनापुर पहुंचे भगवान श्री कृष्ण को लेकर दुर्योधन ने शकुनि को चेतावनी दी की अगर कल श्री कृष्ण ने कुछ उल्टा सीधा बोला तो मैं इसे बंदी बना लूंगा।
हस्तिनापुर में शांतिदूत बनकर पहुंचे भगवान श्री कृष्ण की चापलूसी करते दिख रहा है। इस पर भगवान श्री कृष्ण ने शकुनि को उनकी ही तरह जवाब दिए हैं जिसके बाद शकुनि चारों खानें चित हो गए।
भगवान श्री कृष्ण हस्तिनापुर पहुंच गए हैं। इस दौरान वो पांडवों के शांति दूत बनकर पहुंचे है। लेकिन उन्होंने हस्तिनापुर के राजमहल में रुकना अस्वीकार किया और महात्मा विदुर के घर जाकर विश्राम करने और खाना खाने का विचार किया है। वहीं कुंति भगवान श्री कृष्ण से मिलकर उनकी बुआ कुंती फूट-फूट कर रो रही हैं। जिसके बाद भगवान ने कुंती को समझाया है।
पांडवों का संदेशा लेकर शांतिदूत बनकर भगवान श्री कृष्ण हस्तिनापुर पहुंचे हैं। इस दौरान उनका पूरे हस्तिनापुर ने भव्य स्वागत किया है। खुद पितामह उन्हें राजमहल तक लेकर आए हैं।
कर्ण पहली बार गंगा पुत्र भीष्म के कक्ष में जाकर उनसे बात कर रहे हैं। इस दौरान कर्ण ने पूछा कि मैं हमेशा अर्जुन से हार क्यों जाता हूं। इस पर पितामह ने कहा क्योंकि तुम हमेशा अधर्म का साथ देते हो। दुर्योधन अधर्म का देवता है। यदि विजय होना चाहते हो और सत्य मार्ग पर चलना चाहते हो तो दुर्योधन को छोड़ दो।
अहंकारी दुर्योधन को लाख समझाने के बाद भी कुछ समझ नहीं आया। मूर्ख दुर्योधन ने धृतराष्ट्र से कहा कि अगर वासुदेव ने पांडवों की तरफ से बोलने का प्रयास किया। तो मैं हस्तिनापुर में वासुदेव श्री कृष्ण को बंदी बना लूंगा। जिसके बाद पितामह ने धृतराष्ट्र से कहा कि अगर ऐसा करने का दुर्योधन ने प्रयत्न भी किया, तो इसकी मौत पर रोने वाला भी हस्तिनापुर में नहीं होगा।
भगवान श्री कृष्ण शांति दूत बनकर हस्तिनापुर आ रहे हैं। इस दौरान पितामह ने धृतराष्ट्र के सामने दुर्योधन को चेतावनी दी है कि वासुदेव श्री कृष्ण के सामने अपने स्वर को नीचे रखना, क्योंकि वो सिर्फ शांति दूत नहीं हैं वो एक सत्य हैं और वो संसार और हर एक चीज से परे हैं। इसलिए उनसे कुछ भी गलत बोलने का साहस मत बोलना।
विदुर और पितामह भीष्म बातचीत कर रहे हैं। इस दौरान विदुर ने पितामह को बताया कि इस बार पांडवों की तरफ से शांति प्रस्ताव लेकर आ रहे हैं। विदुर ने पितामह से ये भी कहा कि आप महाराज से कहिेए की वासुदेव के शांति प्रस्ताव को स्वीकार कर लें। अन्यथा इतिहास दुर्योधन को नहीं बल्कि महाराज धृतराष्ट्र को इस युद्ध के लिए जिम्मेदार ठहराएगा।
महात्मा विदुर ने पितामह भीष्म के कक्ष में गए हैं। इस दौरान उन्होंने विदुर से कहा कि मैं ऐसा अभागी हूं जो चाह कर भी इस युद्ध को नहीं टाल सकता और ना चाह कर भी दुर्योधन की तरफ से युद्ध करूंगा। मैं चाह कर भी मर नहीं सकता और भयंकर विध्वंस देखने के लिए जीना भी नहीं चाहता नहीं हूं।
श्री कृष्ण के पास शिखंडी पहुंचे हैं, इस दौरान उन्होंने भगवान से पूछा युद्ध होगा या नहीं। इस बात का जवाब देते हुए भगवान ने कहा इस बात को मैं अभी से नहीं बता सकता। शांति दूत बनकर हस्तिनापुर जा रहा हूं। वहां से आकर ही कुछ निर्णय हो पाएगा कि पांडवों और कौरवों का युद्ध होगा या नहीं।
पितामह भीष्म युद्ध के संकेतों को देख कर अंदर ही अंदर काफी दुखी नजर आ रहे हैं। इस दौरान उन्होंने गुरुद्रोण से अपने मन की बात कही है। उन्होंने गुरुद्रोण से पूछा क्या हम लोग इस युद्ध को रोक पाएंगे। क्या इस अनर्थ को रोका जा सकता है, इस पर द्रोण ने कहा कि जब तक वासुदेव श्री कृष्ण हैं तब तक शांति का कोई मार्ग निकल सकता है।
शांति दूत बनकर हस्तिनापुर जा रहे श्री कृष्ण के पास द्रौपदी आई है। उसने कहा कि ऐसी शांति की बात मत करना माधव जैसे की आप सबकुछ भूल गए हैं। इसके बाद द्रौपदी ने कहा क्या आप भूल गए कि मेरा द्यूत सभा में सबके सामने जो अपमान हुआ था।
दुर्योधन अपने मामा शकुनि के कहने पर श्री कृष्ण से द्वारिका जा कर मदद मांगी। इस दौरान वो भगवान के सर की ओर बैठा तभी वहां अर्जुन भी पहुंच गया जो प्रभु के चरणों की ओर जाकर खड़ा हो गया। जब श्री कृष्ण ने कहा कि मैं दोनों ही की मदद करूंगा युद्ध में, तो दुर्योोधन ने भगवान से उनकी नारायणी सेना मांग ली। लेकिन भक्त अर्जुन ने सेना की जगह युद्ध में नारायण को ही मांग लिया।
शकुनि ने दुर्योधन से कहा यदि युद्ध अनिवार्य है तो श्री कृष्ण की सेना को अपने में मिला लो, तब तुम्हे कोई नहीं हरा सकता है। जिसके बाद दुर्योधन श्री कृष्ण की द्वारिका में उनसे मिलने गया।
शकुनि ने दुर्योधन से कहा यदि युद्ध अनिवार्य है तो श्री कृष्ण की सेना को अपने में मिला लो, तब तुम्हे कोई नहीं हरा सकता है। जिसके बाद दुर्योधन श्री कृष्ण की द्वारिका में उनसे मिलने गया।
दुर्योधन अपने मामा शकुनि के कहने पर श्री कृष्ण से द्वारिका जा कर मदद मांगी। इस दौरान वो भगवान के सर की ओर बैठा तभी वहां अर्जुन भी पहुंच गया जो प्रभु के चरणों की ओर जाकर खड़ा हो गया। जब श्री कृष्ण ने कहा कि मैं दोनों ही की मदद करूंगा युद्ध में, तो दुर्योोधन ने भगवान से उनकी नारायणी सेना मांग ली। लेकिन भक्त अर्जुन ने सेना की जगह युद्ध में नारायण को ही मांग लिया।
शकुनि ने दुर्योधन से कहा यदि युद्ध अनिवार्य है तो श्री कृष्ण की सेना को अपने में मिला लो, तब तुम्हे कोई नहीं हरा सकता है। जिसके बाद दुर्योधन श्री कृष्ण की द्वारिका में उनसे मिलने गया।
शकुनि ने दुर्योधन से कहा यदि युद्ध अनिवार्य है तो श्री कृष्ण की सेना को अपने में मिला लो, तब तुम्हे कोई नहीं हरा सकता है। जिसके बाद दुर्योधन श्री कृष्ण की द्वारिका में उनसे मिलने गया।
शकुनि ने दुर्योधन से कहा यदि युद्ध अनिवार्य है तो श्री कृष्ण की सेना को अपने में मिला लो, तब तुम्हे कोई नहीं हरा सकता है। जिसके बाद दुर्योधन श्री कृष्ण की द्वारिका में उनसे मिलने गया।
शकुनि ने दुर्योधन से कहा यदि युद्ध अनिवार्य है तो श्री कृष्ण की सेना को अपने में मिला लो, तब तुम्हे कोई नहीं हरा सकता है। जिसके बाद दुर्योधन श्री कृष्ण की द्वारिका में उनसे मिलने गया।
पितामह भीष्म ने भरी सभा में कर्ण को सूद पुत्र कह कर बुलाया जिसके बाद कर्ण अपमान मेहसूस कर के क्रोधित हो गया। जिसके बाद दुर्योधन कर्ण के महल में जाकर उनसे माफी मांग रहा है।
आंखो में अश्रु लिए धृतराष्ट्र कह रहा है कि मैं चाह कर भी इंद्रप्रस्थ नहीं लौटा सकता क्योंकि वो मेरे पास इंद्रप्रस्थ नहीं है वो दुर्योधन के पास है और दुर्योधन अहंकारी है कभी नहीं देगा।
संजय ने राज्य सभा में आकर युधिष्ठिर का फैसला सुनाया उसने कहा कि पांडव अब सिर्फ दो विकल्पों को देख रहे हैं, या तो शांति से इंद्रप्रस्थ दे दो, नहीं तो युद्ध करना अनिवार्य हैं।
हस्तिनापुर की राज्यसभा में संजय ने पहुंच कर अर्जुन का संदेशा बताया जिसके बाद दुर्योधन क्रोधित होकर युद्ध करने की बात करने लगा। जिसके बाद धृतराष्ट्र और पितामह ने उसे समझा रहे हैं।
विदुर और धृतराष्ट्र के बीच हस्तिनापुर के भविष्य को लेकर बातचीत चल रही है। इस दौरान विदुर ने धृतराष्ट्र से कहा कि आपने पांडवों के साथ शुरू से अन्याय किया है। जिसके बाद धृतराष्ट्र ने कहा दुर्योधन मेरा दायित्व है, जिसके बाद विदुर ने उनसे कहा कि दुर्योधन आपका दायित्व नहीं रोग है। जिसको राजा बनाने के लिए आप कुछ भी करने को तैयार हैं। इतिहास आपको इस कृत्य के लिए कभी माफ नहीं करेगा।
जब से संजय पांडवों के पास से आया है और उसने युधिष्ठिर का संदेशा धृतराष्ट्र को सुनाया है, तब से धृतराष्ट्र व्याकुल हो गया है। जिसके बाद उसने महात्मा विदुर को बुलवाया है। विदुर ने महाराज के पास आने के बाद उनके दोषों को गिनाना शुरू कर दिया है।
धृतराष्ट्र का दूत बनकर युधिष्ठिर के पास पहुंचे संजय ने वापस आकर महहाराज को पूरी बात बताई है। जिसके बाद धृतराष्ट्र क्रोधित हो गया और उसने तुरंत विदुर को बुलाने को कहा।
धृतराष्ट्र ने संजय को भेज कर युधिष्ठिर को ये सूचना दी की, पांडवों से जाकर कहो, जहां हैं वहीं खुश रहें। संजय की इस बात को सुनकर सभी पांडवों का खून खौल उठा है। जिसके बाद खुद युधिष्ठर ने भी संजय से कहा कि पिता श्री से कहो कि हम इंद्रप्रस्थ में शांति पूर्वक रह लेंगे। अगर वो इंद्रप्रस्त नहीं देना चाहते तो युद्ध के लिए तैयार रहें।
धृतराष्ट्र ने संजय को भेज कर युधिष्ठिर को ये सूचना दी की, पांडवों से जाकर कहो, जहां हैं वहीं खुश रहें। संजय की इस बात को सुनकर सभी पांडवों का खून खौल उठा है। जिसके बाद खुद युधिष्ठर ने भी संजय से कहा कि पिता श्री से कहो कि हम इंद्रप्रस्थ में शांति पूर्वक रह लेंगे। अगर वो इंद्रप्रस्त नहीं देना चाहते तो युद्ध के लिए तैयार रहें।
धृतराष्ट्र ने अपने सारथी संजय को युधिष्ठिर के पास अपना निर्णय लेकर भेजा है। इस दौरान संजय ने युधिष्ठिर को बताया कि महाराज धृतराष्ट्र ने संदेशा भेजा है, कि पांडव जहां है वहीं रहें इसी में सभी की भलाई है। जिसके बाद बाकी पांडव खौल उठे हैं।