सुनील दत्त ने अपने करियर की शुरुआत साल 1955 में की थी लेकिन उन्हें पहचान मिली साल 1957 की फिल्म मदर इंडिया से। इस फिल्म के बाद उन्होंने एक से बढ़कर एक फिल्में दी जिनमें साधना, सुजाता, मुझे जीने दो, गुमराह, वक्त, खानदान आदि शामिल हैं। लेकिन 1971 के आते-आते सुनील दत्त का करियर डगमगाने लगा था। उनके पास फिल्में नहीं थी और हीरो का रोल मिलना लगभग मुश्किल हो गया था। वो दौर राजेश खन्ना, अमिताभ जैसे अभिनेताओं का हो चला था।

सुनील दत्त को फिल्में नहीं मिल रही थीं और अगर मिल भी रही थी तो उन्हें विलेन का किरदार मिल रहा था जो उन्हें कतई मंजूर नहीं था। उनकी छवि एक अभिनेता की थी और वो नहीं चाहते थे कि पर्दे पर वो एक खलनायक के रूप में दिखें। इसी बीच उन्हें साधना के साथ एक फ़िल्म ऑफर हुई, ‘गीता मेरा नाम।’ इस फिल्म में सुनील दत्त की भूमिका एक खलनायक की थी इसलिए उन्होंने फ़िल्म करने से तुरंत मना कर दिया।

वरिष्ठ फ़िल्म पत्रकार जयप्रकाश चौकसे ने बीबीसी को दिए एक साक्षात्कार में बताया था कि साधना और और आरके नय्यर ने उन्हें किसी तरह मना लिया था। उन्होंने बताया था, ‘जब 1971 से 1975 तक कोई फिल्म नहीं मिलने से उनका करियर लड़खड़ाने लगा तो अभिनेत्री साधना और आरके नय्यर ने उन्हें गीता मेरा नाम फिल्म में काम करने को कहा। लाख समझाने के बाद उन्होंने पहली बार खलनायक की भूमिक निभाई। उसके बाद से उन्हें फिर से फिल्में मिलनी शुरू हो गईं।’

 

सुनील दत्त निजी ज़िंदगी में बेहद ही संजीदा इंसान थे और उन्हें अपने पत्नी बच्चों से काफी प्रेम था। उनकी पत्नी नरगिस से जुड़ा एक बेहद ही भावुक किस्सा है कि जब नरगिस कैंसर से जुझ रही थीं और विदेश में उनका इलाज चल रहा था तब डॉक्टर्स ने कह दिया था कि इनके जीने की कोई उम्मीद नहीं है। डॉक्टर्स चाहते थे कि नरगिस का लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटा दिया जाए लेकिन सुनील दत्त ने उनकी एक न सुनी। हालांकि नरगिस बच नहीं पाईं और 3 मई 1981 को उन्होंने दम तोड़ दिया।

 

सुनील दत्त अपने बेटे संजय दत्त के भी बेहद करीब थे। जब संजय दत्त को ड्रग्स की लत लगी तब सुनील दत्त ने बेटे को इस लत से छुटकारा दिलाने के लिए दिन-रात एक कर दिया था। उन्होंने संजय को अमरीका के एक प्रसिद्ध नशा उन्मूलन केंद्र में भेजा जहां संजय दत्त का ईलाज हुआ और वो ठीक हो गए।