इस हफ्ते रिलीज हुई वरुण धवन और अनुष्का शर्मा की फिल्म ‘सुई धागा’ कारीगरी, खासकर हथकरघा और बुनकरी के इर्द-गिर्द घूमती है। अंग्रेजी राज ने भारत के देसी वस्त्र उद्योग को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया था। इस दौरान भारत के किसान तो तबाह हुए ही, बुनकरी की कला भी बर्बाद हुई। बुनकरी के साथ दूसरी बड़ी त्रासदी यह हुई कि व्यापक सामाजिक चेतना में भी यह हाशिए पर चली गई। इस लिहाज से ‘सुई धागा’ एक सकारात्मक फिल्म है। देश का ऊंचा तबका भले ही इस फिल्म को ज्यादा पसंद न करे, लेकिन शहरों से लेकर गांवों तक में निराशा की जिंदगी जी रहे कारीगरों और बुनकरों के समुदाय में यह फिल्म खासी लोकप्रिय होगी। हालांकि फिल्म के अंत में इसमें शहरी समाज को लुभाने के नुस्खे भी इस्तेमाल हुए हैं।

फिल्म में वरुण धवन ने मौजी नाम के युवक का किरदार निभाया है। मौजी एक सिलाई मशीन बेचने वाले के यहां काम करता है। नौकरी करने के साथ-साथ उसे कभी कुत्ता तो कभी बंदर की एक्टिंग करके अपने मालिक का मनोरंजन भी करना पड़ता है। यह बात उसकी सीधी-सादी पत्नी ममता (अनुष्का शर्मा) को पंसद नहीं आती। वह कहती है कि मौजी अपने हुनर का इस्तेमाल क्यों नहीं करता? मौजी का हुनर यह है कि वह सिलाई मशीन पर फटाफट नए कपड़े सिल देता है, वो भी नए-नए डिजाइन के। जब मौजी की मां बीमार के कारण अस्पताल में भर्ती होती हैं तो वह अस्पताल में उनके पहनने के लिए रातों-रात एक शानदार एक मैक्सी सिल देता है, जिसे देखकर अस्पताल के दूसरे मरीज भी इसकी मांग करने लगते हैं। यह देखकर मौजी और ममता को लगता है कि क्यों न इसी सिलाई के हुनर से रोजगार पैदा किया जाए। लेकिन रास्ता इतना आसान नहीं, बहुत सी रुकावटें हैं और माता-पिता भी सहयोग देने को तैयार नहीं। भाई-भाभी भी विरोध करते हैं। वे कहते हैं कि मौजी किसी के यहां छह-आठ हजार की नौकरी कर ले। इसके बाद मौजी और ममता क्या करते हैं? फैशन की दुनिया में नाम कमाने का उनका सपना पूरा होता है या नहीं, यह जानने के लिए आपको सिनेमाघर का रुख करना पड़ेगा।

‘सुई धागा’ की एक बड़ी खूबी यह है कि इसमें ग्लैमर न के बराबर है। गाने जरूर हैं, लेकिन वो भी किसी बर्फीली वादी या पहाड़ जैसी खूबसूरत लोकेशन पर नहीं दिखते। वरुण धवन और अनुष्का शर्मा, दोनों ने ही एक अतिसामान्य परिवार के पति-पत्नी का किरदार निभाया है। निर्देशक शरत कटारिया दर्शकों को उन गलियों में ले गए हैं, जहां नलों में पानी भी ठीक से नहीं आता और नौजवान पति-पत्नी के रहने के लिए एक अदद ढंग का कमरा भी नहीं है। फिल्म एक सामूहिक चेतना की जरूरत दिखाती है। यानी अगर हम सब सामूहिक भावना से काम करें तो कई लोगों की जिंदगी बदल सकती है। हालांकि यह आज के जमाने में खोखला आदर्शवाद लग सकता है, लेकिन इसकी जरूरत हर समाज को रहती है। फिल्म में हल्का-फुल्का हास्य है लेकिन इसमें ऐसे कई जज्बात भी हैं जो आम आदमी की जिंदगी में हर रोज देखने को मिलते हैं।