नादिरा
5 दिसंबर, 1932- 9 फरवरी, 2006
फिल्मों में एक बार कोई कलाकार इमेज में कैद हो जाता है तो फिर उसे तोड़ना उसके लिए कितना मुश्किल हो जाता है, यह नादिरा के करियर से समझा जा सकता है। नादिरा यानी फ्लोरेंस एजेकेल, जो इराक के शहर बगदाद में एक यहूदी परिवार में पैदा हुईं मगर नियति उन्हें भारत ले आई। अंत समय में उनकी इच्छा के मुताबिक यहूदी के बजाय हिंदू रीति रिवाज से उनका अंतिम संस्कार हुआ।
महबूब खान देश की पहली रंगीन फिल्म ‘आन’ (1952) बना रहे थे। फिल्म की एक हीरोइन, निम्मी, मिल गई थी। दूसरी के लिए नरगिस और मधुबाला में से एक को लिया जाना था, जो संभव नहीं हुआ। जब बगदाद से एक शादी में भारत आर्इं 16-17 साल की फ्लोरेंस एजेकेल को एक दिन महबूब खान ने अपनी फिल्म की हीरोइन बनाया, तो फ्लोरेंस की मां को यह पसंद नहीं आया। उन्होंने जब कहा कि फिल्मों में काम करना बुरा माना जाता है और अब नादिरा सिनेगांग (यहूदी पूजा स्थल) नहीं जा सकेंगी और कोई यहूदी उनसे शादी नहीं करेगा, तब नादिरा ने कहा कि फिलहाल तो हमारी बुनियादी जरूरत शाम के खाने का इंतजाम करना है। फिल्मों में काम करना बुरा है, तो भूखा मरना उससे ज्यादा बुरा है।
दरअसल, फ्लोरेंस भारत आ कर बहुत खुश थीं।महबूब खान की पत्नी सरदार अख्तर ने फ्लोरेंस को स्टारों की तरह रहना सिखाने की कई दिनों तक कोशिश की मगर यह फ्लोरेंस के मिजाज में नहीं था। महबूब खान ने फ्लोरेंस को एक नया नाम नादिरा देकर 12 सौ रुपए महीने पर ‘आन’ के लिए साइन किया था। जब तीन महीने की 36 सौ रुपए तनख्वाह एक साथ मिली, तो नादिरा ने कहा कि इतना पैसा लेकर वे घर अकेली नहीं जा सकतीं। उनकी सुरक्षा का इंतजाम किया जाए। मां-बेटी ने जीवन में इतनी बड़ी रकम पहली बार देखी थी। लिहाजा पहले तो कई दिनों के बाद दोनों ने भरपेट खाना खाया। फिर चोरी के डर के मारे दोनों रात भर जागती रहीं। अगले दिन सबसे पहले उन्होंने सोने का एक सेट खरीदा और घर का फर्नीचर लिया।
‘आन’ (1952) ने कमाई के रेकॉर्ड बनाए। यह पहली फिल्म थी, जो 17 भाषाओं के सब टाइटल्स के साथ 28 देशों में रिलीज हुई थी। लंदन में फिल्म का प्रीमियर हुआ। इसी प्रीमियर पर वह मशहूर घटना भी घटी थी, जब हॉलीवुड के मशहूर हीरो एरोल फ्लीन ने ‘आन’ की हीरोइन निम्मी के हाथ का चुंबन लेना चाहा था और निम्मी ने उनसे कहा था कि आप ऐसा नहीं कर सकते हैं क्योंकि मैं एक भारतीय लड़की हूं। नादिरा भी रातोरात स्टार बन गर्इं।
फिर नादिरा को मिली राज कपूर की ‘श्री 420’ (1956) जिसमें उनके सिगरेट पकड़ने के अंदाज को बाद में कई हीरोइनों ने दोहराने की विफल कोशिशें की। इस फिल्म में सिगरेट पकड़ने के उनके अंदाज ने उनके करियर की दिशा बदल ली। फिल्म तो खूब चली मगर खल भूमिका होने के कारण नादिरा के पास हीरोइन के प्रस्ताव आने बंद हो गए। कई महीनों तक काम नहीं मिला, तो हार कर नादिरा खलनायिका की भूमिकाएं ही करने लगीं। इस दौरान भारत नादिरा की रगों में बड़ी खामोशी से बसता गया था। उनके निधन पर बीसीसीआइ के पूर्व अध्यक्ष रहे पीएम रूंगटा ने उनकी वसीयत सार्वजनिक की थी- नादिरा ने यहूदी होने के बावजूद खुद को दफनाने के बजाय हिंदू रीतिरिवाजों से जला कर अंतिम संस्कार करने की इच्छा जताई है। मामला संवेदनशील था। लिहाजा यहूदियों की द शेपर्डी फेडरेशन आॅफ इंडिया के अध्यक्ष सोलोमन एफ सोफर को सार्वजनिक बयान जारी करना पड़ा कि उनकी इच्छा तो नादिरा को यहूदी परंपरा के मुताबिक दफनाने की है मगर नादिरा ऐसा नहीं चाहती थीं।

