वैसे तो इलाहाबाद या लखनऊ भी छोटे शहर नहीं है लेकिन अगर मान लें कि वे ऐसे हैं तो यह फिल्म उन शहरों की लड़कियों की बारे में है जो जिंदगी में अपनी शख्सियत की तलाश में हैं। वक्त बदलने के साथ ऐसे शहरों की लड़कियों में कैरियर और शादी के बीच चुनाव कई बार कठिन हो गया है। परिवार के लोग चाहते हैं कि लड़की की शादी जल्द कर दें ताकि जिम्मेदारी से मुक्त हों। या परिवार में जो बहू आए वह सिर्फ घर का कामकाज करे, नौकरी नहीं। पर आज की लड़कियां चाहती हैं कि कैरियर भी बनें यानी नौकरी भी करें।

इस फिल्म की लड़की आरती शुक्ला घर में बिना बताए उत्तर प्रदेश पब्लिक सर्विस कमीशन की परीक्षा देती है। लेकिन इसी बीच उसकी शादी तय हो जाती है। सत्येंद्र मिश्रा (राज कुमार राव) से। सत्येंद्र एक क्लर्क है। शादी के पहले जब आरती सत्येंद्र से मिलने जाती है, उसके मन में ऊहापोह है कि लड़का कैसा है। पर मिलने के बाद सत्येंद्र उसे अच्छा लगता है। फिर क्या, दोनों की शादी तय हो जाती है। और जिस दिन बारात आती है उसी समय आरती को मालूम होता है कि वह पब्लिक सर्विस कमीशन की परीक्षा में उत्तीर्ण हो गई है। अब क्या करे, बात यह है कि सत्येंद्र की मां ये नहीं चाहती की बहू नौकरी करे। अब आरती के सामने असमंजस है कि क्या किया जाए। शादी करे तो कैरियर खत्म। इसलिए अपनी बहन और मामा के कहने पर वह घर से भाग जाती है। बिना पिता और सत्येंद्र को बताए।

सत्येंद्र को मानसिक धक्का लगता है। और प्रतिक्रिया में इतनी मेहनत करता है कि आइएएस बन जाता है। उधर अफसर आरती पर आरोप लगता है कि उसने घूस में तीन करोड़ लिए हैं और जांच सौंपी जाती है जिलाधिकारी सत्येंद्र को। सत्येंद्र तो बदला लेने पर तुल गया है। क्या आरती का कैरियर हमेशा के लिए खत्म हो गया या दोनों के बीच के कोमल रिश्ते फिर से पनपेंगे… टूटी हुई शादी क्या फिर से होगी…
फिल्म एक सामाजिक सचाई को सामने लाती है। हां, मध्यांतर के बाद धीमी हो जाती है और कुछ जगहों पर घिसटने लगती है। फिर भी विषयवस्तु की सचाई और राज कुमार राव और कीर्ति खरबंदा के अभिनय के कारण ढीले ढाले ढंग से ही सही, अपनी पकड़ बनाए रखती है। राज कुमार राव तो इस साल कई फिल्मों छाए रहे। कीर्ति भी अपनी मासूमियत से दशर्कों को बांधे रखती है।