Sam Bahadur Movie Review, Rating in Hindi: 2018 में मेघना गुलजार की फिल्म राजी रिलीज हुई थी, विक्की कौशल का छोटा रोल था, लेकिन सेना की वर्दी में उन्हें पहली बार लोगों ने देखा। इसके बाद 2019 में अपने करियर की सबसे बड़ी हिट फिल्म उरी में विक्की ने फिर आर्मी ऑफिसर का किरदार निभाया। उस रोल में उनकी कद काठी और ज्यादा तगड़ी और डायलॉग डिलीवरी शानदार रही थी। अब उसी स्टैंडर्ड को टक्कर देने के लिए विक्की ने फिर अपने कौशल का इस्तेमाल किया है, बड़े पर्दे पर वे भारतीय फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ के रूप में नजर आए हैं। मेघना गुलजार ने फिर फिल्म की कमान संभाली है और दर्शकों के बीच सैम बहादुर रिलीज हुई है। अपने ही स्टैंडर्ड को विक्की ने कितनी टक्कर दी है, सारा खेल इसी बात का है….

कहानी

सैम बहादुर एक बायोग्राफी फिल्म है, ऐसे में इसमें कहानी नहीं वास्तविकता है। ढाई घंटे के अंदर में मेकर्स फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ की पूरी जिंदगी तो पर्दे पर नहीं दिखा सकते थे, लेकिन उनकी जिंदगी के कुछ पहलुओं पर रोशनी डाली गई है। सैम ने किस तरह से वर्ल्ड वॉर 2 में बर्मा में घुसकर जापान की सेना के दांत खट्टे किए थे, किस तरह से सैम ने 1962 के युद्ध के बाद पूर्वोत्तर में भारतीय सेना को मजबूत किया था, इसके अलावा 1971 में बांग्लादेश की आजादी के लिए कैसे सैम की रणनीति ने पाकिस्तान के इरादे पस्त कर दिए थे। इन सभी घटनाओं पर मेघना गुलजार का पूरा फोकस रहा है, इसके साथ-साथ इंदिरा गांधी के साथ उनके रिश्तों को लेकर भी थोड़ा बहुत बताने की कोशिश रही है।

एक बहादुर प्रयास जहां सबकुछ रियल

सैम बहादुर कहना चाहिए मेघना गुलजार का भी एक ‘बहादुर’ प्रयास रहा है। आज के जमाने में जब गदर 2 जैसी फिल्मों में पाकिस्तान को ढेर सारी गाली देकर बॉक्स ऑफिस पर करोड़ों पैसे छापे जाते हैं, सैम बहादुर के जरिए और ज्यादा रियलिस्टिक होने की कोशिश की गई है। ये कोई ऐसी फिल्म नहीं है जहां पर आपको जबरदस्ती के देशभक्ति वाले डायलॉग्स दिखेंगे, हर दो मिनट में ‘How’s the Josh’ वाली हुंकार रहेगी। इससे ऊपर उठकर सैम बहादुर में दिखाया है कि सेना में अनुशासन की क्या अहमियत रहती है, कैसे जंग के समय सिर्फ हथियार ही नहीं, बुलंद हौसले भी दुश्मनों को हराने का काम करते हैं।

पहला हाफ तगड़ा, दूसरे हाफ में चूक

फिल्म का जो फर्स्ट हाफ है, वो पूरी तरह सैम मानेकशॉ के आर्मी करियर पर फोकस करता है। पहले ही सीन से आपका उस किरदार के साथ ऐसा कनेक्शन बैठता है कि वो अंत तक नहीं टूटता। जैसे-जैसे फिल्म में मानेकशॉ की रैंक बढ़ती जाती है, देश एक अलग युद्ध से गुजरता है, ऐसे में आप उस आर्मी ऑफिसर के करियर का हिस्सा बन जाते हैं। इसी वजह से फर्स्ट हाफ में कहानी का फ्लो तगड़ा दिखाई पड़ता है, इसके ऊपर इंटरवल से ठीक पहले वाला सीन आपके रौंगटे खड़े करने का काम करता है।

अब फिल्म का फर्स्ट हाफ जरूर बहुत दमदार लगता है, लेकिन सेकेंड हाफ में कुछ कमियां नजर आने लगती हैं। इसे बजट की कमी कही जाए या फिर जरूरत से ज्यादा सिंपलिस्टिक ट्रीटमेंट, फिल्म का जो क्लाइमेक्स है, उसमें रीयल फुटेज का सारा इस्तेमाल हुआ है। अगर ये डॉक्यूमेंट्री होती तो मेकर्स की हम तारीफ करते क्योंकि ऐसी फुटेज निकालने के लिए भी रिसर्च करनी पड़ती है। लेकिन यहां एक बड़े पर्दे के लिए फिल्म बनी है, उसमें वॉर एक्शन एक अहम पहलू रहता है। लेकिन क्लाइमेक्स में सैम बहादुर के मेकर्स ने अपने दर्शकों को उसी एक्शन से वंचित कर दिया है। 1971 की जंग बड़े पर्दे पर दिखाई गई है, उसमें सबकुछ न्यूजपेपर कटिंग और कुछ रीयल फुटेज तक सीमित रखा गया है।

विक्की का दिखा कौशल, दूसरे कलाकारों का भी कमाल

मेकर्स की इतनी तारीफ जरूर बनती है कि उन्होंने कहीं भी हाईप क्रिएट करने के लिए बेतुके सीन्स का इस्तेमाल नहीं किया है। ये पूरी तरह कंटेंट ड्रिवन फिल्म है जिसे अपना गोल पता है- सैम मानेकशॉ की शख्सियत को सही तरह से दर्शकों के बीच में परोसना। अब मानेकशॉ का जिक्र हो ही गया है तो बात विक्की कौशल की एक्टिंग की भी होनी चाहिए। हम विक्की को इस परफॉर्मेंस के लिए ‘बेस्ट’ का तमगा नहीं दे सकते क्योंकि जैसा इस कलाकार का टैलेंट है, कब इससे और बेहतर काम देखने को मिल जाए, किसी को नहीं पता। लेकिन ये जरूर कहा जाएगा कि अब तक का सबसे शानदार काम विक्की ने कर दिखाया है।

उरी में अगर विक्की कौशल की फिजीक ने हमे इंप्रेस किया था, यहां पर उनके ठहराव ने, बोलने के अंदाज ने, आंखों की कलाकारी ने दिल जीतने का काम किया है। उनकी स्क्रीन प्रेजेंस ही आपको बांधे रखने के लिए काफी दिखाई पड़ती है। विक्की के शानदार अभिनय को इस बार सह कलाकारों का भी पूरा साथ मिला है। बात अगर फातिमा सना शेख की करें तो इंदिरा गांधी के रोल में वे काफी सहज दिखी हैं। उनकी एक्टिंग में भी एक अलग ठहराव है, ये बताना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि ऐसे किरदारों में अगर ओवर कर दिया जाए तो वो दर्शकों का उससे कनेक्ट नहीं बन पाता है। मानेकशॉ की पत्नी के किरदार में सान्या मल्होत्रा ने अच्छा सपोर्ट दिया है, उनको ज्यादा स्क्रीन टाइम नहीं मिला है, लेकिन कहानी में उनकी अहमियत एक बार भी कम नहीं होती है।

अंत में गलती कर गईं मेघना गुलजार

इसी तरह जवाहर लाल नेहरू के रोल में नीरज काबी, पाकिस्तान आर्मी के जनरल याया खान के रूप में जीशान आयूब और सरदार पटेल की भूमिका में गोविंद नामदेम का काम भी काबिले तारीफ रहा है। अब सैम बहादुर के शानदार एक्टिंग डिपार्टमेंट को काफी हद तक मेघना गुलजार के निर्देशन का साथ मिला है। बहुत हद तक इसलिए क्योंकि डायरेक्शन में कुछ चूक दिखाई पड़ी हैं। एक तो फिल्म की जो एंडिंग रही है, वो कुछ फीकी कही जाएगी। कोई ये उम्मीद नहीं कर रहा कि तथ्यों के साथ मेकर्स छेड़छाड़ करते, लेकिन बड़े पर्दे के लिहाज से ट्रीटमेंट और बेहतर रह सकता था। मेघना के निर्देशन का प्लस प्वाइंट ये है कि उन्होंने अपने मुख्य किरदार सैम मानेकशॉ के किरदार को पूरी शिद्दत के साथ गढ़ा है, वहां कोई गलती की स्कोप नहीं छोड़ी गई है।

इसके ऊपर फिल्म का जो गाना है ‘बढ़ते चलो’, उसे जिस तरह कहानी में मिक्स किया है, वो गजब का लगता है। शंकर अहसान लॉय की आवाज और गुलजार के लिखे शब्दों का जादू फिल्म खत्म होने के बाद भी आपके साथ रहने वाला है। यानी कि सैम बहादुर सही मायनों में विक्की के कौशल को और ज्यादा बढ़ाने का काम करती है, क्लाइमेक्स की कमी को अगर नजरअंदाज कर दिया जाए तो मेघना गुलजार की ये पेशकश बड़े पर्दे के लिए ही बनी है।