एक धीमी पर मनोविज्ञान के भीतर प्रवेश करनेवाली फिल्म। मनोविज्ञान के भी दो छोर हैं। पहला तो यह कि एक व्यक्ति अपनी फैक्ट्री के मजदूरों की भलाई के लिए किस हद तक जा सकता है और दूसरा यह कि एक पुत्र अपने पिता की दुर्घटना में मृत्यु की तहकीकात के लिए किस सीमा तक जा सकता है। पिता का नाम है दिवाकर (मनोज वाजपेयी) और पुत्र है ध्रुव (आदर्श गौरव)। पिता स्क्रीन पर ज्यादा नहीं दीखता। बस, शुरू के पंद्रह-बीस मिनटों तक। बाद में दो तीन बार फ्लैश बैक की वजह से आता है। इस तरह फिल्म पुत्र-केंद्रित है। यानी फिल्म के नायक भी आदर्श गौरव हैं। एक किशोर, जिसकी उम्र सत्रह-अठारह साल होगी, किस तरह अपने पिता की मृत्यु से व्यथित है और उसके भीतर कितने तरह के जजबात उथल-पुथल मचाते हैं। इसी की फिल्म है ‘रुख’।
फिल्म की तीसरी कड़ी दिवाकर की पत्नी और ध्रुव की मां (स्मिता तांबे) जो अपने पति की मृत्यु का असल कारण जानती है लेकिन अपने बेटे को बताती नहीं है। अर्थात देर से बताती है। उसका पति परिवार के प्रति गैर जिम्मेदार और अपनी फैक्ट्री के मजदूरों के प्रति बेहद संवेदनशील था। ऐसे में पत्नी क्या करे? चुप रहे या बोले? फिल्म में पत्नी ज्यादा बोलती नहीं। उसकी चुप्पियां ही ज्यादा बोलती हैं। फिल्म थोड़ी और चुस्त होती तो दर्शकों को बांधे रख सकती थी। फिल्म में पश्चाताप का भी पहलू है। ध्रुव अपने स्कूल में गुस्से में आकर अपने एक सहपाठी के पैर तोड़ देता है।
बाद में उसे इसका एहसास होता है कि उसने गलत किया। पर ये पहलू ठीक से नहीं उभरता।