लड़की गुजरातन है और लड़का पंजाबी। लड़की का नाम सेजल (अनुष्का शर्मा) है और लड़के का हैरी। दोनों मिलते हैं। लेकिन हिंदुस्तान में नहीं बल्कि नीदरलैंड में, जहां लड़की अपने परिवार वालों और मंगेतर के साथ छुट्टियां मनाने गई हुई है। वहां हैरी टूरिस्ट गाइड का काम करता है। मस्तमौला शख्स है वो। लड़की के परिवारवालों की छुट्टियां खत्म हो गई हैं और वो सब वापस आने के लिए हवाई जहाज में बैठ चुके हैं। तभी लड़की को पता चलता है कि मंगेतर जी ने उसे जो सगाई में अंगूठी दी थी वो कहीं खो गई है। अब क्या? लड़की को लगता है कि बिना अंगूठी के तो वापस नहीं जानेवाली है। वो अपना बोर्डिंग पास फाड़कर फेंक देती है और प्लेन से उतर जाती है। फिर गाइड हैरी से कहती है कि वो अंगूठी ढूंढने में मदद करे। दोनों अंगूठी ढूंढ़ते-ढंूढ़ते पूरा यूरोप घूम लेते हैं-प्राग, बुडापेस्ट, फ्रैंकफुर्ट, लिस्बन। और न जाने कहां। फिर वो मिलती कहां है? अनुमान लगाइए।

पर असल किस्सा ये नहीं है। असल किस्सा ये है कि निर्देशक इम्तियाज अली अपनी फिल्मों में किस्से का ताना बाना अक्सर कुछ इस तरह बुनते हैं कि लड़की की शादी जब किसी से साथ तय होती है, तो उससे नहीं होती है। कुछ न कुछ लफड़ा हो जाता है और लड़की किसी और के साथ चल देती है। यहां भी ऐसा ही होता है। और ऐसा होने के लिए निर्देशक ने पूरा इंतजाम किया है। सेजल अपने मंगेतर को खुश करने के लिए अंगूठी ढूंढ़ने का फैसला करती है लेकिन ऐसा करती है अपने होनेवाले पति के साथ नहीं बल्कि एक हल्के से जान पहचानवाले गाइड हैरी के साथ। और वो हैरी को कहती है कि जब तक उसके साथ है, ऐसा व्यवहार करे मानों वो उसकी गर्लफ्रेंड है। जाहिर है ऐसी लड़की सिर्फ खयालों में हो सकती है जो रात में सोते समय अपने गाइड के बगल मे लेट जाए, और मंगेतर के प्रति वफादारी की बात करती रहे।

यह बात फिल्म निर्देशक के तमाम आधुनिक लहजे के बावजूद विश्वसनीय नहीं लगती है। हां, शाहरूख खान का जलवा और उनकी शैली देखने को मिलती है। अनुष्का शर्मा भी अपने स्मार्ट और ओवरस्मार्ट व्यवहार से दर्शक के दिल और दिमाग पर छाने की कोशिश करती है। लेकिन छा नहीं पातीं, क्योंकि फिल्म उस मूल जज्बे से दूर चली गई है जिसमें इश्क मासूमियत भी मांगता है। हालांकि ये अलग से कहने की जरूरत नहीं कि ‘जब हैरी मेट सेजलह्ण अपने मिजाज में रोमांटिक फिल्म है, और इसमें राधा वाला गाना जबर्दस्त है, फिर भी ये फिल्म दिल को नहीं छूती। माना कि प्रेम में तर्क नहीं चलता लेकिन फिल्म तो तर्क से दूर नहीं जा सकती ना।
असल में कमजोरी मूल कहानी में नहीं है बल्कि सेजल, यानी अनुष्का शर्मा ने जो किरदार निभाया है, उसमें है। उसका अंगूठी खोजना तो वाजिब लगता है पर जिस खुलेपन से वो व्यवहार करती है वह उसे न पारंपरिक औरत बनाता है और आधुनिक। मंगेतर से इतना लगाव कि उसकी दी हुई अंगूठी खोजने के लिए वह विदेश में रुक जाती है और फिर गाइड को कहना कि उसे अपना गर्लफ्रेंड समझे – बात गले नहीं उतरती इम्तियाज अली जी।

ये ठीक है कि इम्तियाज अली उस तरह की फिल्में बनाते हैं जिसमें इनसानी मन की जटिलताएं सामने आतीं हैं। कई बार उनकी ये फितरत सफल भी हुई है जैसे कि ‘जब वी मेट’ में। पर इस बार वो अपने ही बनाए जाल में उलझ से गए हैं। जहां तक शाहरूख खान का सवाल है वे इस बार फिर से रोमांटिक हीरो की छवि फिर से पा लेने के लिए काफी मशक्कत करते दीखते हैं। ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ का राज जितना दर्शकों के दिल में है उससे अधिक उनके भीतर है। लेकिन ‘दिलवाले दुल्हनिया …’ की सिमरन अब बदल गई है। सिमरन और सेजल में काफी फर्क है। सिमरन यूरोप में पली बढ़ी होकर भी भारतीय संस्कार वाली थी और सेजल भारत में पली बढ़ी होकर भी यूरोप से आगे निकल गई है। इसलिए फिल्म में सेजल और पंजाबी पुत्तर हैरी के बीच केमिस्ट्री दमदार नहीं होती है। आखिर पंजाब दाल के साथ गुजराती ढोकला खाने में जमेगा क्या? वो भी नीदरलैंड के रेस्तरां में।
अली ने यूरोप की सैर करा दी है लेकिन वहां के किसी शहर का चरित्र फिल्म में स्थापित नहीं होता। सिर्फ यही लगता है कि किसी यूरोपीय शहर के दृश्य यू-ट्यूब पर देख रहे हैं। हां, उन्होंने गैरकानूनी तरीके से यूरोप जानेवाले और वहां बसने वाले भारतीयों का क्या हाल है, इसकी एक झलक दिखला दी है। पर भारतीय मूल के एक खलनायक नुमा चरित्र, जिसका नाम गैस है, उसे भी मजाकिया बना दिया है। इस वजह से भी फिल्म में तनाव के लम्हे कम ही उभर पाए हैं।