बलराज साहनी
(1 मई, 1913, 13 अप्रैल, 1973)
शांतिनिकेतन में शिक्षक, महात्मा गांधी के साथ काम और उनकी सिफारिश पर बीबीसी लंदन में नौकरी, हिंदी और अंग्रेजी में दोहरी मास्टर डिग्री, गुरु दत्त की ‘बाजी’ का पटकथा लेखन के साथ ही बलराज साहनी ने हंस में कहानी लेखन भी किया। ‘धरती के लाल’, ‘दो बीघा जमीन’, ‘सीमा’, ‘काबुलीवाला’, ‘गरम हवा’, ‘वक्त’… ऐसी फिल्में हैं, जिन्होंने हिंदी सिनेमा के खजाने को समृद्ध किया है। इन सभी फिल्मों में बलराज साहनी ने काम किया। आज उनकी 45वीं पुण्यतिथि है।
यह भीषण गर्मी में कलकत्ता की कोलतार से पिघलती सड़कों पर दो किसानों की मुलाकात थी। पहला किसान बिहार का था। दूसरा किसान परदे का, यानी अभिनेता। वाकया तब का है जब सूदखोर लाला के लालच के कारण ‘मदर इंडिया’ (1957) का अशिक्षित किसान बिरजू डाकू नहीं बना था। बिहार का किसान कलकत्ता में रिक्शा खींच रहा था कि सड़क पर उसकी मुलाकात परदे के किसान शंभु महतो यानी बलराज साहनी से हो गई, जो कैमरे के सामने सड़कों पर रिक्शा चला रहे थे। धूप और गर्मी से परदे के साहनी का सिर चकरा रहा था, लिहाजा वे रिक्शे में बैठ गए। बिहार से आकर रिक्शा खींच रहा झुर्रियों से पटा, बड़ी दाढ़ी और पीले दांतों वाला अधेड़ किसान आश्चर्यमिश्रित आवाज में पूछता है,‘ये क्या हो रहा है बाबू!’ परदे का किसान जबाव देता है कि फिल्म बना रहे हैं। बिहारी रिक्शेवाला पूछता है, ‘फिल्म में क्या काम करते हो।’ शॉट में देरी थी और साहनी थोड़ी सांस भी लेना चाहते थे। लिहाजा समय गुजारने के लिए अपने ‘हमपेशा’ के साथ बैठ कर उसे ‘दो बीघा जमीन’ (1953) की कहानी सुनाने लगे (जिसकी वे शूटिंग कर रहे थे), जो उन्हें हृषिकेश मुखर्जी ने सुनाई थी।
कहानी शंभु महतो की थी, जो ठीकठाक किसान था। उसे उम्मीद थी की फसल अच्छी हुई तो इस साल गिरवी पड़े बीवी के जेवर जमींदार के यहां से छुड़ा लेगा। उसका दुर्भाग्य सिर्फ इतना था कि उसकी दो बीघा जमीन के चारों ओर जमींदार की जमीन थी और जमींदार वहां पर फैक्टरी लगाना चाहता है। मगर शंभु जमीन बेचने से यह कह कर इनकार कर देता है कि जमीन तो किसान की मां होती है। तब जमींदार अपना उधार शंभु से मांगता है, जो अशिक्षित शंभु और उसके बेटे के हिसाब से 65 रुपए, मगर जमींदार के मुताबिक 235 रुपए आठ आने था। मामला कोर्ट में जाता है और अदालत से शंभु को उधार चुकाने के लिए तीन महीने का समय मिल जाता है। तब शंभु 235 रुपए आठ आने कमाने कोलकाता आकर रिक्शा खींचने लगता है।
परदे का किसान कहानी सुना रहा था और बिहारी किसान रो रहा था। वह रूंधे गले से बता रहा था कि बाबू यह कहानी तो उसकी अपनी कहानी है। वह 15 साल पहले बिहार से कोलकाता आया था, क्योंकि उसकी जमीन भी जमींदार के पास गिरवी पड़ी है। उसे भी रिक्शा चला जमींदार का उधार चुकाना है। मगर 15 साल गुजर गए। लगता नहीं कि वह अपनी जमीन वापस छुड़ा पाएगा। बिहार के किसान की बात सुन परदे के किसान को लगा कि समय ने उसे इस मकाम पर खड़ा कर दिया है कि एक दुखी इनसान की कहानी जमाने के सामने ला सके। देश के औद्योगिक विकास में असली कुर्बानी किसान ने दी और आज भी हालात इससे अलग नहीं है।
‘दो बीघा जमीन’ के बीज चाहे इतालवी फिल्म ‘बाइसिकिल थीव्स’ में हों, मगर सलिल चौधरी (संगीतकार भी) ने इससे प्रभावित होकर ‘रिक्शेवाला’ कहानी लिखी थी, जिस पर दो बीघा जमीन बन रही थी और साहनी मुख्य भूमिका निभा रहे थे। इससे पहले 1946 में ख्वाजा अहमद अब्बास निर्देशित पहली फिल्म ‘धरती के लाल’ में साहनी किसान की भूमिका निभा चुके थे। फिल्म 1943 में बंगाल में पड़े अकाल की पृष्ठभूमि पर थी। व्यापारी किसान से 12 रुपए मन (32 किलो) के हिसाब से धान खरीद लेता है और फिर उसी धान को किसान को 22 रुपए मन के हिसाब से तब बेचता है जब लोग दाने-दाने को मोहताज हो भूखे मरने लगते हैं। कुल मिलाकर फिल्म एक किसान के दर्द का दस्तावेज थी। उच्च शिक्षित साहनी दोनों ही फिल्मों में असली किसान नजर आते थे।
