एक होती है डकैती। जैसे बैंक डकैती। और एक होती है बैंक बकैती। वैसे बैंक बकैती नाम की कोई चीज सुनी नहीं होगी आपने। लेकिन ये होती है। विश्वास नहीं होता तो ‘रांची डायरीज’ नाम की यह फिल्म देख लीजिए। पूरी फिल्म एक बैंक डकैती के वाकये पर टिकी है। लेकिन ये बैंक डकैती नहीं बैंक बकैती है क्योंकि जो बैंक लूटने गए हंै, वे आधी फिल्म में बैंक के अंदर घुस कर बक बक यानी बकैती करते रहते हैं। वैसे यह पूरी फिल्म एक मजाकिया थ्रिलर हैं। पर दिक्कत यह है कि मजाक ठीक से जम नहीं पाता। शायद इस फिल्म के निर्माण में झारखंड सरकार का काफी सहयोग मिला है। अनुपम खेर ने इसमें काम तो किया है लेकिन वे इसके निर्माता भी हैं। उनकी भूमिका कमजोर हैं लेकिन शायद फिल्म निर्माण में उनको काफी फायदा हुआ है इसलिए बिना यह देखे कि फिल्म में भूमिका दमदार है या नहीं उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया है।

फिल्म पिंकू (ताहा शाह) नाम के ऐसे शख्स के इर्द गिर्द घूमती है, जो है तो छोटा- मोटा शोहदा है लेकिन अपने को गॉडफादर समझता है। दो और शोहदे उसके दोस्त हैं। इनका एक और यानी तीसरा दोस्त है मोनू (हिमांश कोहली) जो एक मैकेनिक है। मोनू की एक प्रेमिका है गुड़िया (सौंदर्या शर्मा), जो म्यूजिक में नाम कमाना चाहती है और स्टार गायिका बनना चाहती है। गुड़िया पर एक बदमाश ठाकुर भैया (अनुपम खेर) की भी नजर है। मोनू और गुड़िया भाग जाना चाहते हैं लेकिन हालात ऐसे बनते हैं कि पिंकू, उसके दोस्त, मोनू और गुड़िया को बैंक डकैती करनी पड़ती है। लेकिन जब वे डकैती डाल रहे होते हैं तो थानेदार (जिमी शेरगिल) भी वहां पहुंच जाता है। उधर राज्य के नक्सली भी उसे बैंक पर नजर गड़ाए बैठे हैं। क्या बैंक डकैती हो पाएगी या ये सारे एक साथ पकड़े जाएंगे?पर जैसा कि पहले कहा जा चुका कि फिल्म के मूल में थ्रिलर वाला ये सस्पेंस नहीं है कि बैंक डकैती हो पाती है या नहीं बल्कि इस बात पर हैं कि डकैती के वाकये में कितने तरह का हंसी मजाक हो सकता है या उसकी कितनी संभावनाएं हैं। पर निर्देशक ने दृश्यों की बुनावट ऐसी की है कि दर्शकों को हंसने की सहज इच्छा नहीं होती और मुस्कुराने कि लिए भी कई जगहों पर जोर लगाना पड़ता है।

हां, कुछ जगहों पर हल्की निरायास हंसी जरूर है। जैसे पिंकू, गुड़िया और मोनू जब पतरातू (झारखंड) में एक ग्रामीण बैंक को लूटने अंदर जाते हैं, तो पाते हैं कि चौकीदार को बांधनेवाली रस्सी बाहर खड़ी गाड़ी में ही छोड़ आए हैं। इस तरह के सहज हास्य वाले कुछ और दृश्य हैं पर कम ही हैं। वैसे अनुपम खेर और जिमी शेरगिल जैसे कुशल अभिनेता यहां हैं लेकिन या उनके अभिनय को देखकर लगता है कि फिल्म में दोनों ने मन लगाकर काम नहीं किया है। बस निपटा दिया है। दोनों मुख्य कलाकार, यानी हीरो हीरोइन (हिमांश कोहली और सौंदर्या शर्मा) भी जम नहीं पाते। नक्सलवादियों का जिस तरह चित्रण किया गया है उससे लगता है कि निर्देशक को इस आंदोलन या राजनैतिक समस्या की कोई समझ नहीं है।