मां का बचपन में निधन हो गया और पिता इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर सके। कपड़ों के कारोबारी पिता का दिल उचटा तो प्रकाश मेहरा का जीवन रसहीन होने लगा। गीत लिखकर किशोर उम्र मेहरा ने खुशी तलाशने की कोशिश की। 13 साल की उम्र में पहली बार अपने मोहल्ले के फरीद मियां के साथ मुंबई आए, जिनका मुंबई सेंट्रल में ताडदेव एअरकंडीशंड मार्केट के पास वेलडन नामक सलून था। इसके बाद मेहरा का मुंबई आना जाना लगा रहा। मैट्रिक की परीक्षा के बाद हुई छुट्टियों में जब मेहरा फरीद मियां के साथ मुंबई आए, तो तय किया कि अब कुछ बन कर रहेंगे। घर वालों ने सख्त नाराजगी जताई। लिहाजा हुआ यह कि मुंबई के कोलाबा में करीबी रिश्तेदार होते हुए भी मेहरा के सामने फुटपाथ पर सोने की नौबत आ गई। जब सड़क पर सोने की नौबत आई तो फरीद मियां ने सलून की एक बेंच मेहरा के नाम कर दी। कभी खाना मिल जाता तो ठीक, वरना भूखे पेट सो जाते थे। मेहरा को एक रुपए रोज में एक फिल्म कंपनी के कैमरा डिपार्टमेंट में काम मिल गया था। फिर कुछ दिन प्रोडक्शन कंट्रोलर के तौर पर भी काम किया। 1968 में ‘हसीना मान जाएगी’ और 1971 में संजय खान, फिरोज खान, मुमताज की फिल्म ‘मेला’ की कामयाबी प्रकाश मेहरा के करियर में राहत लेकर आई लेकिन नया मोड़ आया 1973 की फिल्म ‘जंजीर’ से। ‘जंजीर’ की कहानी सलमान खान के पिता सलीम खान ने लिखी थी और अभिनेता धर्मेंद्र को ढाई हजार रुपए में बेच भी दी थी। मगर धर्मेंद्र व्यस्त थे इसलिए उस पर फिल्म नहीं बना सके। बाद में सलीम से जावेद जुड़ गए।

इस लेखक जोड़ी ने यह कहानी प्रकाश मेहरा को सुनाई। प्रकाश मेहरा ने देव आनंद, राज कुमार और धर्मेंद्र को फिल्म में लेना चाहा, मगर तीनों अलग-अलग कारणों से फिल्म नहीं कर सके। अंत में अमिताभ बच्चन इसके हीरो बने। मगर उनके फिल्म में आते ही मुमताज ने फिल्म छोड़ दी। सलीम ने किसी तरह जया भादुड़ी को मनाया। ‘जंजीर’ रिलीज हुई और इसने इतिहास रच दिया।

मेहरा हिट निर्माता-निर्देशक बन गए। उनके जीवन का फक्कड़पन उनकी फिल्मों के किरदारों में उतरने लगा। उनका नायक कभी शराबी, कभी प्यार का प्यासा तो लावारिस होता था। सफलता के बावजूद मेहरा संघर्ष के दिनों के अपने मददगार को नहीं भूले थे। सफल होते ही उन्होंने दो काम किए। पहला तो यह कि वेडलन सलून से वह बेंच अपने बंगले पर बुलवा ली, जिस पर उन्होंने कई रातें गुजारी थी। दूसरा काम यह किया कि फरीद मियां से कहा कि वह हर रविवार उनके बाल काटने के लिए उनके घर पर आया करें।
प्रकाश मेहरा हों या ना हो, फरीद मियां उनकी कटिंग बनाएं या नहीं बनाएं, एक लिफाफा उनके लिए अलग रखा हुआ रहता था। घर के लोगों को निर्देश था कि फरीद मियां इस बंगले में बेरोकटोक आ सकें और यह लिफाफा उन्हें दे दिया जाए। इस लिफाफे में पांच सौ रुपए होते थे। फरीद मियां जब तक जिंदा रहे प्रकाश मेहरा के साथ उनका यह रिश्ता बरकरार रहा।