धार्मिक आस्था और कला क्या हमेशा एक दूसरे के साथ होने चाहिए? ज्यादा सरलता से पूछें तो क्या आप जिस धर्म के हैं, क्या आपकी कला भी उसी से जुड़ी होनी चाहिए? यानी अगर क्या आप मुसलमान हैं तो किसी हिंदू देवी-देवता की मूर्ति नहीं बना सकते? और अगर आप ऐसा करते हैं तो क्या आपके मजहब वाले इसे स्वीकार करेंगे? और फिर हिंदू इसे किस रूप में देखेंगे? ऐसा भी हो सकता कि दोनों मजहब वाले आपके खिलाफ हो जाएं।

निर्देशक जैगम इमाम की फिल्म इन्हीं और ऐसे ही मसलों के इर्द-गिर्द घूमती है। इसमें अल्लारखा (इनामुलहक) नाम का एक नक्काश है, जो वाराणसी के एक मंदिर में नक्काशी करता है। वह वहां मंदिरों की दीवारों पर तरह-तरह की धार्मिक आकृतियां बनाता है, देवी-देवताओं के चित्र बनाता है, हाथी और फूल भी बनाता है। ये उसका पुश्तैनी पेशा है। लेकिन अब जमाना बदल गया है और कुछ लोगों को इस पर एतराज है। अल्लारखा के मजहब वाले खासकर मौलवी को और कुछ हिंदूवादियों को भी। अब तो अल्लारखा दोनों पाटों में पिसने लगता है। वो छिप-छिप कर मंदिर जाने और वहां नक्काशी का काम करने लगता है। उसका एक छोटा बेटा भी है। पत्नी नहीं है, इसलिए बेटे पर जान न्योछावर करता है। फिर वो दोनों पाटों के बीच फंसता ही जाता है और एक दिन उसके खिलाफ षड्यंत्र होता है। क्या वो इस षड्यंत्र से बच पाएगा या उसका शिकार होगा?

इसमें संदेह नहीं कि निर्देशक जैगम इमाम ने एक ऐसे शख्स की पीड़ा और दर्द को दिखाया है, जो दिल से तो निश्छल है, सबकी मदद करनेवाला है लेकिन उस दलदल में फंसता जाता है जिसे धर्म और राजनीति मिलकर बनाते हैं। अल्लारखा के चरित्र को निभाते हुए इनामुलहक ने ऐसे व्यक्तिकी सामाजिक असुरक्षा को सामने लाया है। वह अपने फन में तो माहिर है ही, किसी तरह के धार्मिक उन्माद से ग्रसित भी नहीं है। फिर भी हालात के थपेड़े उसे लगातार सामाजिक स्तर पर कमजोर करते जाते हैं। इस पहलू को इनामुलहक ने अपने अभिनय से उभारा है। मंदिर के महंत वेदांती की भूमिका में कुमुद मिश्रा ने बहुतों के मन में बसी इस धारणा को भी ध्वस्त करने की कोशिश की है कि पुजारी की सोच हमेशा दकियानूसी होती है। वेदांती ही वह शख्स है, जो अल्लारखा से अपने मंदिर में नक्काशी का काम कराता है और जरूरत पड़ने पर उसकी मदद करता है।

फिल्म ‘नक्काश’ बहुत सहज तरीके से उभरते मजहबी कठमुल्लेपन और उग्र राजनीति में फंसे आम आदमी की पीड़ा को व्यक्त करती है। जिस विचारधारात्मक उभार के तहत ‘खुदा हाफिज’ की जगह ‘अल्ला हाफिज’ पर जोर दिया जा रहा है, यह फिल्म उसे भी सामने लाती है। फिल्म यह भी दिखाती है कि समाज में परस्पर धार्मिक सहयोग की परंपरा रही है, जो अब खतरे में है।