खय्याम के संगीत की अपनी खूबी रही है। उसे भीड़ में नहीं, सुकून से ही सुना जा सकता। फिर उसका असर चढ़ता है और आप उसकी गिरफ्त में होते हैं। फिर आपको इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि ‘गपुची गपुची गम गम’ क्या बला है, आप तो डूब जाते हैं मधुरता की गहराइयों में। यह खय्याम के संगीत की खूबी ही थी, जिसके कारण शास्त्रीय संगीत सीखे राज कपूर प्रिय संगीतकार शंकर- जयकिशन को भूल जाते। वह ‘फिर सुबह होगी’ में शंकर-जयकिशन को लेना चाहते थे। साहिर लुधियानवी इसके खिलाफ थे। उनकी सिफारिश पर खय्याम धुनें सुनाने राज कपूर के कॉटेज गए। जब खय्याम ने ‘वो सुबह कभी तो आएगी…’ गाने की पांच धुनें सुनाई, तो राज कपूर गदगद हो गए। निर्माता रमेश सहगल से कहा कि अगर इस आदमी का संगीत हमने नहीं लिया तो साबित होगा कि हमें संगीत के बारे में कुछ आता-जाता नहीं।

मोहम्मद रफी और आशा भोसले को संगीतकारों ने ऊपर की पट्टी से गवा गवा कर लाउड स्पीकर बना रखा था। जब रफी को ‘शोला और शबनम’ (1961) में ‘जाने क्या ढूंढ़ती रहती है ये आंखें मुझमें…’ गाना पड़ा तो 21 रीटेक हुए। ‘उमराव जान’ में इसी परेशानी का सामना किया आशा भोसले ने। ‘दिल चीज क्या है…’ की रेकॉर्डिंग पर नीचे की पट्टी में गाने में उन्हें परेशानी हुई। मगर रफी और आशा के ये गाने आज भी बेमिसाल हैं।

‘हकीकत’ जैसी फिल्म बनाने वाले चेतन आनंद ने ‘आखिरी खत’ (1966) में खय्याम को मौका दिया और खय्याम ‘बहारों मेरा जीवन भी संवारों…’ जैसा लोकप्रिय गाना लेकर सामने आए। ‘महल’ से लता मंगेशकर (आएगा आने वाला…) और ‘पाकीजा’ से मीना कुमारी को स्थापित कर देने वाले निर्देशक कमाल अमरोही जब खय्याम से मिले तो 1974 में कमाल के मधुर गानों से सजी ‘रजिया सुलतान’ सामने आई। कव्वन मिर्जा का गाया ‘आई जंजीर की झनकार खुदा खैर करे…’ आज भी लोगों के दिल में सीधे उतरता है।

अमिताभ बच्चन जैसे बेमिसाल अभिनेता ‘रजिया सुलतान’ के संगीत प्रभाव से बच नहीं सके। इसका गाना ‘ऐ दिले नादां…’ में ‘ये जमीं चुप है, आसमां चुप है…’ अंतरे के बाद जो लंबी खामोशी थी (यह आइडिया हालांकि कमाल अमरोही का था), उसने अमिताभ बच्चन को इतना बेचैन कर दिया था कि उस गाने का टेप मांगने जया बच्चन दो बजे रात को खय्याम के घर पहुंच गई थी। यह थी खय्याम के संगीत की ताकत।

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अपने कदरदानों को खय्याम ने कभी निराश नहीं किया और उन्हें उम्मीदों से भी बढ़कर नतीजे दिए। इन कदरदानों ने ही खय्याम को चमकाया। ‘बरसात की रात’ खय्याम ने इसीलिए ठुकराई थी क्योंकि फिल्म के निर्माता आर चंद्रा ( हीरो भारत भूषण के भाई) उन्हें पाकिस्तानी कव्वालियों के कैसेट देकर चोरी करने के लिए उकसा रहे थे। खय्याम ने कहा कि मैं इससे बेहतर कव्वाली बना सकता हूं। मगर जब चंद्रा अड़ गए तो खय्याम ने कहा कि वह इस तरह से काम नहीं करते और फिल्म छोड़ दी। यह काम वही संगीतकार कर सकता है, जो अपनी कला, अपने हुनर को इबादत समझता है।

संगीत की समझ रखने वाले यश चोपड़ा ने खय्याम को 1976 में ‘कभी कभी’ में मौका दिया, तो उनके वितरक, करीबी और शुभचिंतकों ने समझाया कि उनके गाने हिट होते हैं, फिल्में पिट जाती हैं। मगर चोपड़ा को खय्याम पर विश्वास था। नतीजा था ‘मेरे घर आई एक नन्ही परी…’, ‘मैं पल दो पल का शायर हूं…’, ‘कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है…’, जैसे सुरीले गीत। यह खय्याम के संगीत की ताकत ही थी कि उसके बाद चोपड़ा ने उन्हें ‘त्रिशूल’ और ‘नूरी’ जैसी फिल्में सौंपी।