निर्देशक- अनुराग कश्यप, कलाकार- रोनित रॉय, राहुल भट्ट, तेजस्विनी कोल्हापुरे, अंशिका श्रीवास्तव

कहते हैं कि हर व्यक्ति में शुभ और शिव का निवास रहता है। यह सच है। लेकिन इसका विलोम भी सच है। हम सबमें कुछ ऐसा भी रहता है जो कुरूप या अशिव है। कुछ कलाकार शिव पक्ष को अधिक दिखाते हैं। लेकिन अनुराग कश्यप की खासियत यह है कि उनकी नजर कुरूपता पर भी जाती है। यहां कोई मूल्यनिर्णय नहीं हो सकता कि किसी फिल्मकार को क्या दिखाना चाहिए और जो वो दिखा रहा है वह अच्छा है या नहीं है। यह निर्देशक का अपना चयन है और जिंदगी को संपूर्णता में देखने और दिखाने का माध्यम भी। अनुराग की ताजा फिल्म ‘अग्ली’ उसी बदसूरती को दिखाती है जो शायद हर आदमी के भीतर मौजूद रहती है और मौके बेमौके सिर उठाती है।

‘अग्ली’ की पूरी कथा कली (अंशिका श्रीवास्तव) नाम की एक छोटी बच्ची के इर्द-गिर्द घूमती है जिसकी मां शालिनी (तेजस्विनी कोल्हापुरे) ने अपने पहले पति राहुल कपूर (राहुल भट्ट) को छोड़कर पुलिस अधिकारी सौमिक बोस (रोनित रॉय) से शादी कर ली है। कली का जैविक पिता राहुल है। राहुल फिल्मों में स्ट्रगलर है और उसकी माली हालत तो बुरी है ही, साथ ही वह मनोवैज्ञानिक रूप से भी जटिल शख्स बन गया है। वह बात-बेबात शालिनी से झगड़ता है। इसी कारण राहुल और शालिनी का तलाक होता है। कली अब अपने सौतेले पिता के साथ रहती है और अदालत के आदेश से हफ्ते में एक दिन अपने पिता राहुल से मिल सकती है। एक दिन जब कली राहुल से मिलने जाती है और कार में बैठी है तो अचानक उसका अपहरण हो जाता है।

इसके बाद तो अपहरण को लेकर शक की सुइयां इधर-उधर घूमने लगती हैं। शालिनी को शक होता है कि राहुल ने ही अपनी बेटी का अपहरण किया है। सौमिक को भी इसी तरह का संदेह है। इसी माहौल में फिल्म आगे बढ़ती है और किरदारों के व्यक्तिव की भीतरी परतें खुलती जाती हैं। कई और चरित्र हैं जो कलुषित हैं जैसे कली के मामा सिद्धांत, कली की मां की दोस्त राधा। इन सबके अपने-अपने अंधेरे पक्ष हैं। ऐसे में सोचा जा सकता है कि कली (जो दरअसल एक रूपक है मासूमियत का) नाम की लड़की कैसे रहती है और उसे कैसा परिवेश मिलता है? बात को दूर तलक बढ़ाएं तो कह सकते हैं कि हम ऐसे समाज में रह रहे हैं जहां किसी बच्चे की ऐसी परवरिश संभव नहीं है जिसमें वह अपनी मासूमियत को बरकरार रख बड़ा हो सके। हमारा सामाजिक परिवेश ऐसा हो गया है कि निश्छल रहना असंभव हो गया है। ‘अग्ली’ इसी बात को रेखांकित करती है।

अनुराग ऐसे फिल्मकार हैं जिन्होंने न सिर्फ अपना फिल्मी मुहावरा गढ़ा है बल्कि उनका निजी फलसफा भी है। उनके किरदार, उनका कैमरा, उनके लोकेशन, उनकी फिल्मों के गाने या ध्वनियां, सब निजी छाप लिए होते हैं। ै‘अग्ली’ में यही स्थिति है। उनके चरित्र हमें यानी दर्शकों को झटका देते हैं। हालांकि वास्तविकता यह है कि झटका देने जैसा कुछ होना नहीं चाहिए क्योंकि जैसी स्थितियां वे दिखाते हैं या उनके किरदार जिस तरह व्यवहार करते हैं वे सामाजिक अनुभव से बाहर की नहीं होतीं। सब जानते हैं कि समाज में ऐसा होता है। लेकिन हम उनकी अनदेखी करते हैं। अनुराग ये नहीं करते हैं। वे अनदेखे को दिखाते हैं। यह शरीर में सुई चुभाने जैसा है। ‘अग्ली’ देखते वक्त, बार-बार सवाल उठता है कि क्या यही वह दुनिया है जिसे सुंदर कहा जाता है? फिर हमें याद आता है कि चांद भी सुंदर है (यथार्थ में नहीं पर मिथकों में) पर उसमें भी कालिमा है।