चेतन आनंद (3 जनवरी, 1921- 6 जुलाई, 1997)
लंदन की रॉयल अकादमी ऑफ ड्रामेटिक आर्ट्स से प्रशिक्षित अभिनेत्री वीरा सुंदर सिंह (प्रिया राजवंश) की तस्वीर में पता नहीं ऐसा क्या अद्भुत आकर्षण था कि चेतन आनंद ने भारत-चीन युद्ध की पृष्ठभूमि पर बन रही फिल्म ‘हकीकत’ (1964) में उन्हें मौका दिया। वीरा तभी से चेतन आनंद की हो गईं। दोनों की उम्र में 15 सालों का अंतर था। चेतन आनंद की पत्नी उमा के अलग होने से उनकी प्रिया से घनिष्ठता गाढ़ी हुई। यह अनाम रिश्ता 33 साल चला। जमाने की परवाह और शादी किए बिना वे पति-पत्नी और जीवनसाथी जैसे रहे और एक-दूसरे के सुबह-ओ-शाम बन गए। दोनों की आखिरी फिल्म ‘हाथों की लकीरें’ की कहानी प्रिया ने लिखी थी। 30 दिसंबर को प्रिया की 83वीं जयंती थी। आज चेतन की 98वीं जयंती है।
वीरा के हाथों की लकीरों में कुदरत ने एक अनोखा रिश्ता उकेरा था। इस अनाम रिश्ते को चाहे वह समझ न पाई हों, निभाया आखिरी दम तक। ‘हाथों की लकीरें’ में प्रिया ने परिवार, खानदान, परंपराओं का महिलाओं पर पड़ने वाले दबाव का तबीयत से पोस्टमार्टम किया था। फिल्म में उन्होंने एक सैन्य अधिकारी की पत्नी मोना की भूमिका निभाई थी, जो ड्यूटी पर जाते हुए गर्भवती पत्नी से कहता है कि उसकी दस पुश्तों में लड़का ही पैदा हुआ और सैन्य अधिकारी बना। उसे तो बेटा ही चाहिए। पति तो ड्यूटी करते हुए शहीद हो जाता है और वीरा को मरा हुआ बच्चा पैदा होता है।
हालात ऐसे बनते हैं कि मोना को एक कुंवारी मां गीता (जीनत अमान) का बच्चा पालना पड़ता है। बाद में इस बच्चे को लेकर मामला अदालत में जाता है तो मोना तर्क देती है कि वह बच्चे को उसकी असली मां गीता को नहीं लौटाएगी क्योंकि उसने बच्चे को छह सालों तक पाला था। और जो बच्चे को पालती है, वही असली मां होती है। जैसे यशोदा। बच्चे की चाह में तड़पती मोना अंत में फर्श पर लुढ़की नजर आती है और उसके हाथ में जहर की शीशी होती है।
यह संयोग ही है कि ‘हाथों की लकीरें’ में प्रिया का नाम मोना था। उनकी मौत में जिन चार लोगों का हाथ सामने आया उनमें तीन पुरुष थे और एक महिला नौकरानी, जिसका नाम भी मोना था। मोना मात्र चार हजार रुपए के लालच में आ गई थी। ‘हाथों की लकीरों’ की मोना जहर खाकर मरी थी। नौकरानी मोना ने भी प्रिया को जहर देकर मारने की योजना बनाई थी, हालांकि बाद में गला घोंटकर मारना तय किया। प्रिया-चेतन ने सात फिल्मों (हकीकत, हीर रांझा, हिंदुस्तान की कसम, हंसते जख्म, साहेब बहादुर, कुदरत और हाथों की लकीरें) में साथ काम किया। प्रिया का समर्पण मीरा की तरह था।
प्रिया में मां बनने की चाह उनकी आखिरी फिल्म ‘हाथों की लकीरें’ में साफ देखी जा सकती है। 1964 से 1997 (चेतन आनंद के निधन) तक प्रिया-चेतन एक दूसरे के प्रति वफादार रहे। एक दूसरे से कोई शिकायत नहीं। वे अलग अलग फ्लैटों में रहते। दोपहर साथ खाना खाते। शाम को वापस मिलते। दोस्तों को बुला लेते। सिनेमा, साहित्य, संगीत पर चर्चा-झगड़ा करते। एक दूसरे को पूरी आजादी देते। चेतन के निधन के तीन साल बाद प्रिया की हत्या कर दी गई और इसके आरोप में चेतन के दो बेटों और उनके नौकर नौकरानी गिरफ्तार हुए।
