शोले में गब्बर असफल लौटे कालिया को ज्ञान की बात बताता है- जो डर गया, समझो मर गया। फिर डरने की सजा देता है। पिस्तौल से तीन फायर करता है। तीनों जो पहले बच कर हंस रहे थे, मर जाते हैं। कालिया मतलब विजू खोटे इससे पहले भी डरे थे। गोली से नहीं, हिंदी से। विजू खोटे की हिंदी कमजोर थी। मुंबई के ठाकुरद्वार इलाके के उनके स्कूल में नाटक मंचन की तैयारी चल रही थी। विजू से उसके हिंदी अध्यापक ने नाटक में काम करने के लिए कहा। विजू ने कहा कि उसे एक्टिंग पसंद नहीं है और वह इस नाटक में काम नहीं करना चाहता। दरअसल कमजोर हिंदी से डर कर विजू ने यह बात कही थी। मगर अध्यापक ने उसे उत्साहित किया। उसके अभिनेता पिता नंदू खोटे का हवाला दिया। तब डरते-डरते विजू ने हां कहा था।

विजू की हां से खोटे परिवार में अभिनय की परंपरा आगे बढ़ी थी। न चाहते हुए भी विजू को अपनी बहन की तरह अभिनय की दुनिया में कदम रखना पड़ा। विजू के पिता नंदू खोटे मूक फिल्मों, मराठी नाटकों के एक्टर डाइरेक्टर थे। नंदू खोटे के भाई विश्वनाथ खोटे की पत्नी दुर्गा खोटे (‘मुगले आजम’ की जोधाबाई) हिंदी फिल्मों में नाम कमा चुकी थी। विजू की बहन शुभा तो चार साल की उम्र से पिता के नाटकों में जब तब काम करती थी।

शुभा स्विमिंग और साइकिलिंग की चैम्पियन थी और खेल की दुनिया में नाम कमाना चाहती थी। निर्देशक अमिय चक्रवर्ती ने शुभा की तसवीरें देखीं और ‘सीमा’ (1955) में काम का प्रस्ताव भिजवाया। प्रस्ताव लेकर जो मराठी आदमी गया था, उसने जब पैंट-शर्ट पहने शुभा को अपने से डेढ़ेक साल छोटे भाई विजू को तकिए से पीटते देखा तो उलटे पैर लौट गया। जाकर कहा कि लड़की फिल्म की भूमिका में फिट नहीं है। मगर चक्रवर्ती की जिद थी और खोटे परिवार की नियति, चक्रवर्ती ने सीमा में शुभा को मौका दिया।

यही विजू के साथ हुआ। पिता ने उन्हें अपने निर्देशन में बनने वाली फिल्म ‘या मालक’ (1964) का हीरो बना दिया, जिसमें महमूद और शुभा खोटे की जोड़ी थी, जो तब लोकप्रिय थी। फिर दस साल खोटे ने ‘अनोखी रात’, ‘जीने की राह’, ‘रामपुर का लक्ष्मण’ जैसी फिल्मों में छिटपुट भूमिकाएं की। 1975 में आई ‘शोले’ से विजू खोटे के कैरियर में नया मोड़ आया। उन्होंने दस दिन शूटिंग की। मगर इन दस दिनों में उनके अंजरपंजर ढीले हो गए। जिस भूरी घोड़ी पर बैठ कर उन्हें ठाकुर (संजीव कुमार) के सामने पहुंचना था, उसने सात बार विजू को गिराया। खूब हड्डियां टूटीं।

नंदू खोटे अपने बेटे के लिए फिल्म बना कर उसे लोकप्रिय हीरो नहीं बना पाए थे। यह काम वक्त ने 11 सालों बाद ‘शोले’ में किया। घुमाई हुई मूंछें, भाल पर लंबा तिलक, गले में ताबीज, कंधे पर दुनाली लटकाए कालिया को दो-तीन दृश्यों में ही दर्शकों ने इतना पसंद किया कि अभिनय के प्रति जो अरुचि, हिंदी के प्रति जो डर विजू खोटे में था, वह निकल गया। इसके बाद तो लगभग पचास सालों तक खोटे फिल्मों में बॉस के चमचे के रूप में खूब पिटे भी और खूब हंसाया भी। मगर उनकी भूमिकाओं पर कालिया इतना हावी हुआ कि अंतिम समय तक लोग उन्हें कालिया रूप में ही जानते रहे।