अभिनय की विधिवत शिक्षा लेकर फिल्मों में आए कलाकारों को शुरू में लगता है कि वे अपनी शर्तों पर फिल्मजगत में बदलाव ले आएंगे। मगर समय के साथ वे फिसल कर मुख्यधारा के सिनेमा में बहते देखे जाते हैं। नसीरुद्दीन शाह से लेकर ओम पुरी और शबाना आजमी सभी के साथ यही हुआ। स्मिता पाटील भी इससे बच नहीं पाई थीं। अपनी फिल्म ‘नमक हलाल’ के गाने ‘आज रपट जाएं तो हमें न उठइयो…’ की तरह वह अपने बनाए उसूलों से फिसलीं और फिर फिसलती चली गर्इं। जान-बूझकर, चिढ़कर। दो-तीन फिल्में साल में करने वाली स्मिता 10-12 फिल्में कर रही थीं, जिनमें कई बेसिर पैर की थीं और उनमें स्मिता के करने के लिए ज्यादा कुछ नहीं था। हालांकि उन्होंने साथ-साथ छोटे बजट की फिल्में भी कीं।

पुणे के फिल्म और टीवी संस्थान से निकलीं स्मिता न तो पैसे और न ही नाम कमाने की चाह लेकर फिल्मों में आईं थी। वे दूरदर्शन पर समाचार वाचिका थीं, जिन्हें देख कर श्याम बेनेगल को लगा कि वह सिर्फ उन्हें ही खबरें सुना रही हों। बड़ी-बड़ी बोलती आंखों वाली स्मिता को उन्होंने ‘चरणदास चोर’ (1975) में मौका दिया। उसके बाद ‘निशांत’ और गुजरात के दूध उत्पादक किसानों से दो-दो रुपए लेकर बनाई गई ‘मंथन’ (1976) बनाई। स्मिता भी इन फिल्मों में काम कर खुश थीं। उनका लक्ष्य था छोटे बजट की सामाजिक सरोकारों वाली फिल्मों को आगे बढ़ाना। उन्होंने बड़े बजट की कई फिल्में ठुकराई थीं क्योंकि इन फिल्मों में करना उन्हें पसंद नहीं था।

कम बजट की ‘सामना’ (1974), ‘चरणदास चोर’, ‘निशांत’ (1975) ‘मंथन’ (1976), ‘भूमिका’ (1977), ‘गमन’ (1978), ‘भवनी भवाई’, ‘आक्रोश’, ‘द नक्सलाइट’, (1980), ‘चक्र’, ‘सदगति’ (1981) जैसी फिल्में स्मिता कर चुकी थीं। दो राष्ट्रीय पुरस्कार भी जीते। मगर जब समांतर फिल्में बनाने वाले निर्देशकों को स्टार और ब्रांड के चक्कर में फंसते देखा, तो खीजकर स्मिता ने अपने उसूल उठाकर ताक पर रख दिए और जो फिल्म सामने आई, वह साइन कर डाली।
इसकी शुरुआत हुई थी 1982 से (इस साल उनकी 11 फिल्में रिलीज हुर्इं थीं) जब दक्षिण के लेखक, निर्माता, निर्देशक श्रीधर ने उन्हें ‘दिले नादां’ (1982) का प्रस्ताव दिया। स्मिता की यह पहली कमर्शियल फिल्म थी जिसमें राजेश खन्ना, शत्रुघ्न सिन्हा, जया प्रदा जैसे स्टार थे।

हेमा मालिनी जब श्रीधर की एक फिल्म का आॅडीशन देने आर्इं थीं, तो उन्होंने उनसे कहा था कि वह कभी हीरोइन नहीं बन सकतीं। वक्त की बात है, बाद में श्रीधर को हेमा मालिनी को अपनी फिल्म ‘गहरी चाल’ में हीरोइन बनाना पड़ा।

हालांकि खुद श्रीधर भी रिजेक्ट किए जा चुके थे। उनकी पहली कहानी दक्षिण के नामी बैनर एवीएम ने ठुकरा दी थी। बाद में इसी एवीएम ने श्रीधर की लिखी पहली तमिल फिल्म ‘रथ पसायम’ हिंदी में ‘भाई भाई’ (1956, अशोक कुमार, किशोर कुमार) नाम से बनाई। 1961 की ‘नजराना’ (राज कपूर, वैजयंतीमाला) से खुद श्रीधर ने हिंदी फिल्में बनानी शुरू की थीं। उन्होंने ‘दिल एक मंदिर’(1963), ‘प्यार किए जा’(1966), ‘गहरी चाल’ (1973) जैसी फिल्में बनार्इं। यह संयोग है कि स्मिता की पहली कमर्शियल फिल्म ‘दिले नादां’ (1982) श्रीधर की आखिरी हिंदी फिल्म थी।