डिज्नी प्लस हॉटस्टार पर रिलीज हुई इस फिल्म में दिल्ली के बत्रा परिवार की विधवा और बुजुर्ग कुसुम बत्रा (शर्मिला टैगोर) अपना विशाल घर ‘गुलमोहर’ बेचकर पांडिचेरी में बसना चाहती हैं और उनका बेटा (अरुण बत्रा) अपने लिए नया घर बनवा रहा है। पर अरुण बत्रा का बेटा आदि (सूरज शर्मा) अपने पिता के साथ नहीं अलग रहना चाहता है। पिता- पुत्र के बीच रिश्ता सहज नही है। इसी परिवार की एक शाखा यानी कुसुम बत्रा के मृत पति का भाई सुधाकर बत्रा (अमोल पालेकर) भी है जिसकी अपनी संताने भी हैं। धीरे धीरे ये सच्चाई उभरती है कि अरुण बत्रा तो एक गोद लिए गए बच्चे के रूप में इस घर में आया, और जिसका `गुलमोहर’ पर कोई कानूनी अधिकार भी नहीं है। अरुण बत्रा और उसका घर टूटने के कगार पर है।

क्या बत्रा परिवार पूरी तरह बिखर जाएगा?

निर्देशक राहुल चित्तेल्ला ने इस फिल्म में एक ऐसे परिवार को सामने लाया है जिसमें नई पीढ़ी के अरमान अलग हैं। आजकल यौन संबंधों में कई तरह की चीजों का समावेश हो रहा है जिसके बारे में पुरानी पीढ़ी सोच भी नहीं सकती है। जैसे स्त्रियों के बीच समलैंगिता। लेकिन पुरानी पीढ़ी की ही कुसुम बत्रा अपने पौत्री को लेकर इसे सहज ही स्वीकार कर लेती है। धीरे धीरे पीढ़ियों का तनाव घुलने लगता है।

सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या अरुण बत्रा गोद लिए गए अधिकार हीन पुत्र के रूप जिस कड़वी सच्चाई से रूबरू हुआ है वो इस मनौवेज्ञानिक संकट से निकल पाएगा? फिल्म धीरे धीरे चलती है इसलिए नई पीढ़ी के दर्शकों को शायद उतना न भाए। लेकिन पुरानी पीढ़ी के दर्शकों को ये जरूर अहसास होगा कि नई पीढ़ी के साथ कदम मिलाकर चलने की जिम्मेदारी उनकी भी है।

शर्मिला टैगोर ने इतने बरसों के बाद परदे पर आकर शानoeर भूमिका निभाई है। मनोज वाजपेयी ने अंतर्द्वंद्व में फंसे इंसान का जो चरित्र निभाया है वो बेहद प्रभावशाली है। अमोल पालेकर का किरदार थोड़ा सा ही सही खलनायकत्व लिए हुए है, लेकिन है दमदार। फिल्म में नौकर-नौकरानी की एक समानांतर प्रेम कथा चलती है जो मुख्य कहानी को एक दूसरा आयाम दे देती है।