निर्देशक- निशिकांत कामत।

कलाकार- अजय देवगन, श्रेया शरण, तब्बू, रजत कपूर

 

कभी-कभी ऐसा होता है कि जिंदगी का गुनाह के साये से आमना-सामना हो जाता है और अकस्मात अनहोनी हो जाती है। लेकिन ऐसे में गुनहगार कौन है, यह फैसला करना कठिन हो जाता है। गुनाह अगर अनजाने में हुआ है तो क्या गुनहगार अनैतिक हो गया, या हालात ने उसे ऐसा बनाया? ‘दृश्यम’ का मामला भी ऐसा ही कुछ है। हालांकि यह पारिवारिक ड्रामा है। लेकिन इसकी कहानी में एक नैतिक उलझन वाला मसला भी है-जिस गुनाह को छिपाया जा रहा है उसे लेकर हमारी क्या प्रतिक्रिया हो? दर्शक की सहानुभूति किसके साथ हो?

अजय देवगन ने इसमें विजय सलगांवकर नाम के एक शख्स की भूमिका निभाई है जो गोवा के एक गांव में रहता है और केबल का धंधा करता है। विजय बहुत कम पढ़ा-लिखा है और फिल्में देखने का शौकीन है। उसका एक छोटा सा परिवार है-पत्नी और दो बच्चियां। बड़ी बच्ची गोद ली हुई है। अचानक एक दिन विजय और उसके परिवार की दुनिया में भूचाल आ जाता है। उसकी बड़ी बेटी पर पुलिस अधिकारी का बेटा एक अश्लील दबाव बनाता है और आपाधापी में पुलिस अफसर के बेटे की मौत हो जाती है। अब विजय क्या करे? बेटी को और अपने परिवार को कैसे बचाए?

एक तरफ गोवा का पूरा पुलिस महकमा है और दूसरी तरफ एक साधारण परिवार। क्या विजय पुलिस के फंदे से बच पाएगा-पूरी फिल्म इसी सवाल के इर्द-गिर्द चलती है और आखिर तक सस्पेंस बरकार रहता है कि क्या एक कम पढ़ा-लिखा शख्स पुलिस महकमे को चकमा दे सकेगा? क्या विजय की पत्नी (श्रेया शरण) और दोनों बेटियां पुलिसिया तौर-तरीकों और हथकंडों का सामना कर पाएंगी? साधारण और ताकतवार के बीच सिंह और शावक वाला खेल शुरू हो जाता है। क्या शावक सिंह का ग्रास बनने से बच निकलेगा?

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यह एक पारिवारिक ड्रामा है लेकिन थोड़ा अलग किस्म का। इसमें थ्रिलर के तत्त्व भी हैं। कातिल कौन है-यह पता है पर क्या कातिल को पुलिस पकड़ पाएगी? क्या जो कातिल है वो अपराधी भी है या जिसका कत्ल हुआ है वो ज्यादा बड़ा अपराधी है? यह पेच भी यहां है। यह एक अपराध कथा है लेकिन अजय देवगन ने अपना कोई ‘ढिशुंम ढिशुम’ वाला अंदाज नहीं दिखाया है। उन्होंने एक शांत और घरेलू पिता और पति की भूमिका निभाई है। विजय का हाथ एक बार एक पुलिस वाले पर उठता जरूर है लेकिन उठा भर ही रहता है-चलता नहीं है।

तब्बू ने उस पुलिस अधिकारी की भूमिका निभाई है जिसका बेटा गायब हो गया है। एक कड़क अफसर और मां की भूमिका को उन्होंने बड़े संतुलन के साथ निबाहा है। पर पूरी फिल्म अभिनय को उतनी अहमियत नहीं देती जितनी एडिटिंग और कहानी रचने की कला को। पुलिस विजय और उसके परिवार पर कैसे बार-बार फंदा डालेगी और क्या परिवार उस फंदे से बचेगा-इसी कौतूहल के सहारे पूरी फिल्म आगे बढ़ती है। क्या विजय की छोटी बेटी पुलिस वाले का थप्पड़ बर्दाश्त कर सकेगी या सच्चाई उगल देगी-वाला तनाव ही इस लंबी फिल्म को कहीं भी ढीला नहीं बनने देता। फिल्म में ग्रामीण गोवा के लुभावने दृश्य हैं। लेकिन सिनेमेटोग्राफर ने इस बात का भी खयाल रखा है कि इस प्राकृतिक सौंदर्य का कहानी के साथ तालमेल बना रहे।

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‘दृश्यम’ पहले मलयालम में बनी और उसके बाद तमिल, तेलुगु और कन्नड़ में। सभी भाषाओं में यह सफल रही है। अन्य भाषाओं के साथ हिंदी में भी इसकी कहानी में ज्यादा फेरबदल नहीं हुआ है। वैसे कहा यह भी जा रहा है कि मूल मलयालम फिल्म की कहानी भी एक जापानी उपन्यास कार कीगो हीगासीनो के एक उपन्यास से प्रेरित है।

फिल्म इस बात को भी रेखांकित करती है हम कैसे देखते हैं और क्या देखने और याद रखने में कोई रिश्ता है। जिसे अंग्रेजी में ‘विजुअल मेमोरी’ यानी दृश्यात्मक स्मृति कहते हैं-वो क्या है और कैसे हमारे दैनिक जीवन में अहम भूमिका निभाता है-इस तरफ भी निर्देशक का संकेत है।