नृत्य के विशाल पटल पर वरिष्ठ नृत्यांगना और नृत्य गुरु सोनल मानसिंह ने पांच दशक पूरे किए हैं। पद्मभूषण से सम्मानित नृत्यांगना सोनल मानसिंह ने भरतनाट्यम और ओडिशी दोनों ही नृत्य को सीखा है। वे मानती हैं कि शास्त्रीय नृत्य शैलियां मुख्यत: एकल नृत्य शैलियां हैं, पर इन दिनों बैले या नृत्य नाटिकाओं का दौर चल पड़ा है। वे कहती हैं कि अब एक अजीबोगरीब परिपाटी चल पड़ी है। अंतरराष्ट्रीय समारोहों में समूह नृत्य के लिए बुलाया जाता है। उनके यहां एकल नहीं चलता। नृत्य की आत्मा न जाने कहां भटक गई है। अभिनय कहां है किसी को मालूम नहीं है।
सोनल मानसिंह के लिए जीवन ही नृत्य है, नृत्य ही जीवन है। वे कहती हैं कि जहां हम खड़े हो जाते हैं वहीं मंदिर बन जाता है। मैं देवदासी हंू। मैं साधना के उस पथ पर अग्रसर हंू, जहां नृत्य के अलावा मुझे कुछ सूझता ही नहीं। नींद में सांस चल रही है, वह भी लयात्मक नृत्य है। जहां गति है, वहां नृत्य है। हमारे पूर्वजों ने इसे उत्तम स्थान दिया है। हमारे जीवन से नृत्य इस कदर जुड़ा है कि जीवन का शिव तत्त्व ही नटराज है। सबसे मोहक रूप, जिसका अजन्म रूप है। उसकी जटाएं हिमालय की सघन वन की प्रतीक हैं।
कल्पना कितनी विराट है कि यदि वो जंगल नहीं होते तो कैसा उधम मचता? फिर गंगा यानी ‘गम गच्छति इति गंगा’। जो बहता है, वह सब कुछ गंगा है। इधर गंगा का मार्ग अवरुद्ध हो रहा है। वैज्ञानिकों का मानना है कि गंगा का उद्गम, जो गोमुख ग्लेशियर है, वह हर वर्ष पीछे जा रहा है। अगर इसे संकेत मानकर देखें, तो कहना पड़ेगा कि इसी गंगा की तरह हमारी संस्कृति, कलाएं, ज्ञान के सारे संसाधन प्रतिवर्ष पीछे जा रहे हैं। शिव की इन जटाजूटों को बचाना होगा। वरना संस्कृति ही नहीं हमारा अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। जहां हमें नृत्य करने खड़े होते हैं, वहीं मंदिर बन जाता है। मैं देवदासी हंू। मुझे लगता है कि आजकल हम शब्दों का इस्तेमाल तो करते हैं, पर उसके सही अर्थ या विशेष अर्थ से वाकिफ नहीं होते। ‘देवदासी’ का बीजाक्षर-‘दिव’ है। इसका तात्पर्य- दिव्यता, देवता, दिवस, देव या डिवाइन है। इन सभी शब्दों में ‘तेज’ यानी तेजोमय है। उनमें आलोक या दिव्यता है। दिव्यता का ठोस रूप आम लोगों को समझ आता है। अब देखिए, हमारी आदिवासी संस्कृति में ‘देव’ का अन्यतम स्थान है। आदि संस्कृति में पत्थर, पेड़-पौधे, नदी, पहाड़ सब देव स्वरूप हैं। इस तरह मैंने देवदासी के विराट रूप को समझा है। हमें अपनी संकीर्णता को छोड़कर अपनी सोच को विस्तार देना है। ‘नारी’ दिव्यता का प्रतिरूप स्वयं है। इस दिव्यता की बात अपनी जगह है, पर समाज की सच्चाई और ही है। हाल ही में मैं केरल की एक महिला से मिली जो गैंगरेप की शिकार हुई थी। उसे सोचती हूं तो मन क्षोभ से भर जाता है। उसने मुझे बताया कि अब तक उसने चार हजार लड़कियों को बलात्कार का शिकार होने से बचाया है। वह अपनी कोशिश जारी रखे हुए है। मैं भी अपने नृत्य के जरिए समाज में जागरूकता पैदा करना चाहती हूं।
आज की तारीख में हम अपनी कला के साधना पथ पर निरंतर चलते जा रहे हैं। हमारे लिए नृत्य का अर्थ सृष्टि का कलात्मक आकलन है, जहां देवता और मनुष्य, देह और प्रतिमा, शब्द और संगीत का भेद मिट जाता है। नृत्यरत शरीर इस लिहाज से एक मूर्तिमान दैवीय सत्ता में परिवर्तित हो जाता है, वह साधारण से उठकर असाधारण रचता है।
-सोनल मानसिंह, नृत्यांगना
