निर्देशक -फौवाद खान

कलाकार- परेश रावल, नसीरुद्दीन शाह, अनु कपूर
आजकल घर वापसी का हल्ला काफी मचाया जा रहा है। उन्माद की तरह। कुछ लोग जोर शोर से इसी काम में लगे हैं कि एक खास मजहब के लोगों को फिर से उस घर (यानी धर्म) में लाया जाए जो पता नहीं कभी उनका था भी या नहीं या जिसे वे चाहते थे भी, हैं, या नहीं।

एक काल्पनिक और विद्वेषपूर्ण मानसिकता के साथ सांप्रदायिक एजंडा लागू करने का प्रयास हो रहा है। ऐसे में ये फिल्म घर वापसी के सारे तर्क को खंड खंड करके रख देती है। हालांकि ‘धर्म संकट’ में नैतिक उलझने में फंसे व्यक्ति की समस्या को भी दिखाती है। पर इसका मुख्य संदेश तो सांप्रदायिक विचारधारा के खोखलेपन को उजागर करना है।

इसमें मुख्य भूमिका निभानेवाले कलाकार परेश रावल भाजपा के सांसद हैं इसलिए भी ये उन लोगों को उलझन में डालेगी कि इसका विरोध करें या चुप रहें। जो ‘पीके’ फिल्म और आमिर खान को लेकर सड़कों पर थे वे तो इसे लेकर इसी मन:स्थिति में होंगे कि हाय, चुप रहा नहीं जाता और कुछ कहा नहीं जाता।

परेश रावल ने इसमें धर्मपाल त्रिवेदी नाम के एक ऐसे गुजराती का किरदार निभाया है जो मुसलमानों से चिढ़ता है। और इसी कारण अपने पड़ोसी वकील महमूद नाजिम अली शाह खान बहादुर (अनु कपूर) से भी। पर हालात करवट बदलते हैं और एक दिन अपनी मां के पुराने कागजात को देखने के बाद त्रिवेदी को मालूम होता है कि वो तो एक गोद लिया संतान था और अपनी पैदाइश से वो मुसलमान है।

अब तो उसके पांव के नीचे की जमीन खिसक जाती है। वो हिंदू है या मुसलमान- ये सवाल उसे एक नैतिक और मानसिक झंझावात में डाल देता है। उसे ये भी मालूम होता है कि उसके वास्तविक पिता जीवित हैं। मानसिक ऊहापोह में फंसे त्रिवेदी के मन में इच्छा पैदा होती है कि वो अपने असल पिता से मिले। पर ये सब इतना आसान थोड़े है। राह में कई रोड़े हैं। त्रिवेदी अपने पड़ोस के खान बहादुर से मदद मांगता है। वो इस्लाम के बारे में जानना चाहता है।

उसकी धार्मिक मान्यता बदलने लगती है। पर कुछ और पारिवारिक परेशानियां सामने आती हैं। फिर नील आनंद बाबा (नसीरुद्दीन शाह) सामने आते हैं जो धर्मगुरु हैं और कई तरह के जंजाल में लगे हैं। त्रिवेदी की निजी समस्या पारिवारिक समस्या बनती हैं और फिर एक वैचारिक मुद्दा। पर ये सारा कुछ होता है मजाकिया लहजे में और फिल्म में हास्य पैदा करनेवाले संवाद भी काफी हैं। इस तरह ये फिल्म हास्य और संजीदगी के दोनों छोरों को थामे रहती है।

‘धर्म संकट’ में एक ब्रितानी फिल्म ‘द इनफिडेल’ से प्रेरित है। ‘द इनफिडेल’ भी मूल रूप से हास्य फिल्म है। लेकिन इंग्लैंड में धार्मिक पहचान की समस्या उतनी गहरी नहीं है जिस तरह हिंदुस्तान में होती जा रही है इसलिए यहां इसका सामाजिक पहलू ज्यादा प्रासंगिक है। हास्यपरक होने की वजह से इसका सामाजिक संदेश थोड़ा कमजोर जरूर होता है लेकिन शायद फिल्म को सफल बनाने के लिए ये जरूरी भी था।

बहरहाल, जैसा भी है, धर्म संकट में एक साहसिक और समयानुकूल प्रयोग जरूर है और मजाकिया अंदाज में ही सही ये एक ऐसी बात कहती है जिसकी गंभीरता से इनकार नहीं किया जा सकता। परेश रावल का अभिनय शानदार है और नसीरुद्दीन शाह का भी। अनु कपूर भी जमे हैं। हालांकि फिल्म कुछ जगहों पर ढीली जरूर हो जाती है पर इससे इसके प्रभाव में ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है। जो लोग आए चिल्लाते रहते हैं कि फलां धर्म या फलां मजहब संकट में है, उनको तो ये फिल्म जरूर दिखानी चाहिए। पकड़कर। तब वे शायद घर वापसी की निरर्थकता समझ जाएं।