कान फिल्मोत्सव की अधिकतर फिल्में विचार और दर्शन से भीगी हुई नई उम्मीदों का घोषणापत्र हैं। यहां साधारण लोगों की असाधारण कहानियां हैं। यहीं फिल्में अगले एक साल तक दुनियाभर में चर्चा में रहनेवाली हैं। सिनेमा में साहस को सम्मान मिल रहा है। सबकी मंजिल है मनुष्य की पूरी आजादी। कान फिल्मोत्सव के अन सर्टेन रिगार्ड खंड की शुरुआत मिस्र के मोहम्मद दियाब की फिल्म ‘क्लैश’ से हुई है जो विश्व सिनेमा में साहसिक पहल मानी जा रही है। अपनी पिछली फिल्म ‘काहिरा 678’ से दुनियाभर में ख्यात हुए मोहम्मद दियाब ने मिस्र में इस्लामी क्रांति (2011) के दो साल बाद 2013 में हुए सबसे बड़े जन विद्रोह के बीच कुछ अलग-अलग चरित्रों के साथ अभूतपूर्व सिनेमा रचा है।
इस्लामी क्रांति ने तीस साल पुराने शासन का अंत कर दिया है। मुसलिम ब्रदरहूड पार्टी के मोर्सी नए राष्ट्रपति चुने जाते हैं। दो साल बाद ही 2013 की गर्मियों में नए राष्ट्रपति के खिलाफ इतिहास का सबसे बड़ा जन विरोध सामने आता है। मुसलिम ब्रदरहूड और सेना समर्थकों के बीच जारी खूनी संघर्ष में विभिन्न राजनीतिक-धार्मिक विचारों वाले प्रदर्शनकारियों से भरा एक ट्रक काहिरा की सड़कों पर घूम रहा है। दहशत, असुरक्षा, आक्रोश से घिरे मृत्यु के करीब जाते इन कैदियों के जरिए आगे की पूरी फिल्म समाज की विस्मयकारी सचाईयों से गुजरती है।
मोहम्मद दियाब खुद इस्लामी क्रंति से जुड़े रहे हैं। उनका कहना है कि इस्लामिक क्रांति की विफलता के बावजूद यह सपना देखा जा सकता है कि हममें से ऐसा कोई नेतृत्व उभरेगा जो इस्लामी कानून और सैनिक शासन-दोनों से अलग होकर लोकतांत्रिक तरीके से देश का शासन चलाएगा। हम दुनियाभर में देख रहे हैं कि सत्ता परिवर्तन के बावजूद हालात नहीं बदल रहे हैं। इस्लामी देशों का संकट और गहरा है।
वे कहते हैं-फिल्म का अंत खुला रखा गया है क्योंकि मुझे खुद नहीं पता कि आगे क्या होगा? ट्रक के कैदी शुरू से ही आजाद होने की कोशिश करते हैं। पहले वे आपस में लड़ते झगड़ते हैं, फिर एक-दूसरे को बचाने की कोशिश करते हैं। उनकी त्रासदी है कि सत्ता के खूनी संघर्ष में कोई भी पक्ष उन्हें अपना नहीं समझ रहा। आज मिस्र की यही सचाई है। ‘क्लैश’ राजनीति से अधिक अपने सिनेमाई करिश्मे के कारण महत्त्वपूर्ण है। कैमरा ज्यादा समय ट्रक के भीतर देखता है। भीतर की निगाह से ही बाहर को देखता है। जवान -बूढ़े, औरत-मर्द और बच्चे-जैसे सारा देश ही कैद में है। उनकी छोटी-छोटी गतिविधि, बहसें, यादें और सपने एक पूरा संसार रचते हैं। सुबह से शाम, रात और सुबह तक की पटकथा में हम एक ऐसे सिनेमाई अनुभव से गुजरते हैं जो विश्व सिनेमा में अबतक अनदेखा था।
प्रतियोगिता खंड में रोमानिया के क्रिस्टी पुइयू की ‘सिरानेवादा’ एक बार फिर कम्युनिष्ट शासन की स्मृतियों के बीच से कई कहानियों को जोड़ती है। पेरिस में शार्ली एब्दो अखबार पर आतंकी हमले के तीन दिन बाद अपने पिता की मृत्यु के चालीसवें दिन डॉ लारा का पारिवारिक मिलन समारोह पुरानी यादों के जंगल में भटक जाता है। पूरी फिल्म बुखारेस्ट की एक साधारण सी बस्ती में एक अपार्टमेंट में चलती है। खाने की टेबल पर अमेरिका में हुए 9/11 से लेकर पेरिस में हुए ताजे हमले तक इतिहास की इस दिलचस्प खोज में सिनेमा बनता है। यह वाकई दिलचस्प है कि कुछ चरित्र अपनी यादों से भी इतिहास के नए पन्ने खोल सकते हैं।
जबसे कान ने रोमानिया के क्रिस्टीआन मुंगीयु की फिल्म ‘फोर मंथ थ्री वीक्स एंड टू डेज’(2007) को दिखाया है तबसे वहां के फिल्मोद्योग में नया उबाल आया हुआ है। इस बार भी मुंगीयु की फिल्म ‘ग्रेजुएशन’ प्रतियोगिता खंड में है। जर्मनी की चर्चित स्त्री फिल्मकार की ‘टोनी एर्डमान’ एक गंभीर विषय को हास्य परक अंदाज में ले चलती है। दुनियाभर में कारपोरेट संस्कृति ने बिजनेस का तरीका तो बदला ही है, अपने कर्मचारियों की जीवन शैली भी बदल डाली है जहां दिनरात पैसा कमाने को ही जीवन मान लिया गया है। फिल्म में दुनियाभर में कारपोरेट के वर्चस्व की राजनीति के बरक्स आम इंसानों की कई कहानियां हैं जो बताती हैं कि पैसा ही सबकुछ नहीं होता।
नाटकों में जोकर की भूमिका करनेवाला एक पिता अपनी बेटी के मशीनी कारपोरेट जीवन से तंग आकर भेष बदलकर नई पहचान टोनी एर्डमान के रूप में रोमानिया की राजधानी बुखारेस्ट पहुंच जाता है जहां उसकी बेटी दिन रात अपनी कंपनी के फायदे के लिए मर खप रही है। पिता चाहता है कि बेटी एक बेहतर मनुष्य बने। दोनों में एक जंग छिड़ जाती है। कई हास्यपरक घटनाओं के बाद बेटी को पिता की बात समझ में आती है कि जीवन में खुशी का कोई विकल्प नहीं होता।