क्या आपने वास्तविक जीवन में किसी एक महिला मोची को देखा है जो फुटपाथ पर बैठकर जूते गांठती हो या फटे जूते-चप्पल सिलती हो। शायद नहीं देखा होगा। पर इस फिल्म में देखेंगे। अभिनेत्री बिदिता बाग ने फुलवा नाम की एक ऐसी ही महिला मोची का किरदार इस फिल्म में निभाया है, जो शायद हिंदी फिल्मों में पहली बार हुआ है। जवान और खूबसूरत फुलवा को देखकर बाबू (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) नाम का एक शूटर यानी बंदूकबाज जानबूझकर अपने चप्पल को तोड़ता है ताकि उसकी मरम्मत के बहाने फुलवा के पास जाने का बहाना ढूंढ़ सके। चप्पल तोड़ने का यह दृश्य हर दर्शक को याद रहेगा। यह हास्य-भरा और मनोवैज्ञानिक भी है। अपराध पर केंद्रित इस फिल्म में हास्य के ऐसे कुछ और दृश्य हैं, जो इसे क्राइम और कॉमेडी का मिक्स्चर बना देते हैं।
वैसे ‘बाबूमोशाय बंदूकबाज’ का नाम बाबू बंदूकबाज होना चाहिए था लेकिन चूंकि यह फिल्म बांग्ला में भी बनाई गई है शायद इसलिए हिंदी में भी मोशाय शब्द को रखा गया है। फिल्म उत्तर प्रदेश के किसी ऐसे काल्पनिक कस्बे पर केंद्रित है जहां के नेता और अपराधियों में मिलीभगत रहती है और छोटे-मोटे फायदे के लिए किराए के हत्यारों से विरोधियों का सफाया कराया जाता है। बाबू एक ऐसा ही हत्यारा है। वह हत्या के ठेके लेता है। लेकिन एक शहर में एक ही ठेकेदार तो होता नहीं है। कई होते हैं। तो उसी तरह हत्या की ठेकेदारी में भी बाबू का एक प्रतिद्वंद्वी आ जाता है।

नाम है बांके बिहारी। बांके भी हत्या करने के ठेके लेता है। हालांकि उसकी एक और खासियत है। वह यह कि बांके बाबू को अपना गुरु मानता है। हालात दोनों को साथ कर देता है। बाबू बांके को अपना मानने लगता है और अपने घर में ले आता है जहां वह फुलवा के साथ रहता है। कहानी आगे बढ़ती है और होता यह है कि फुलवा बाबू को मारने का ठेका बांके को दे देती है। क्या बाबू मर जाएगा? आखिर फुलवा ने बाबू को मारने का ठेका बांके को क्यों दिया? फिल्म जैसे-जैसे आगे बढ़ती है इन सवालों के जवाब मिलते जाते हैं।‘बाबूमोशाय बंदूकबाज’ एक तरह के ‘गैंग्स आॅफ वासेपुर’ शैली की फिल्म है। धड़ाम-धड़ाम गोलियां चलती हैं। गोलियों के साथ-साथ गालियां भी प्रचुर मात्रा में चलती हैं। और सबसे ज्यादा गालियां तो सरिता जीजी (दिव्या दत्ता) ने जो किरदार निभाया है, देती हैं। शारीरिक यौन संबंध बन रहे हैं, ऐसा दिखानेवाले दृश्य भी इसमें हैं।

फिल्म अपराध और राजनीति के उस गठबंधन के बारे में है जिसमें किसी तरह की नैतिकता नहीं है। कोई भी किसी को मरवा सकता है। चाहे वह भाई हो या प्रेमी। अगर किसी में थोड़ी-सी नैतिकता है तो वह बाबू है। नवाजुद्दीन सिद्दीकी पर ही यह फिल्म केंद्रित है। एक तरह वे इसके हीरो हंै। उनका काम भी बेहतरीन और उन्होंने ऐसे अपराधी का किरदार निभाया है, जो हत्यारा तो है लेकिन उसमें हल्की-सी नैतिक भावना भी है। उनमें सेंस आॅफ ह्यूमर भी भरपूर है। पर पता नहीं फुलवा के चरित्र को निर्देशक ने ऐसा क्यों बना दिया कि वह आखिर में सपाट हो जाती है। वह एक बेहतरीन और यादगार चरित्र बन सकती थी बशर्ते उसमें कुछ नैतिक पसोपेश डाला होता। जतिन गोस्वामी ने भी बांके का जो किरदार निभाया है वह सहज लगता है।