क्वेंटिन टारनटिनो, हर फिल्मी प्रेमी को इस डायरेक्टर का नाम पता होता है। हॉलीवुड की जो भी सबसे बड़ी फिल्में रही हैं, फिर चाहे वो जैंगो अनचेंड हो या हो वन्स अपॉन अ टाइम इन हॉलीवुड, एक चीज कॉमन देखने को मिली है- धाकड़ एक्शन, ऐसी मारधाड़ जिसे सामान्य मारपीट या लड़ाई की कैटेगरी में नहीं डाला जा सकता। वो खून के फव्वारे निकलना, लगातार गोलियों की तड़तड़ाहट रहना, इस लेवल की हिंसा देखने को मिलना कि आदमी सन्न रह जाए। लेकिन उन फिल्मों में एक चीज और होती थी- वो थी मजबूत कहानी, हर एक्शन के पीछे ठोस कारण, यानी कि सिर्फ मारधाड़ नहीं, एक सॉलिड स्क्रीनप्ले भी जहां पर हर किरदार को निखरने का मौका मिलता है, किसी एक को ज्यादा सशक्त बनाकर पेश नहीं किया जाता।

क्या बॉलीवुड के क्वेंटिन टारनटिनो बनना चाहते संदीप रेड्डी?

अब हॉलीवुड में तो क्वेंटिन टारनटिनो ने इसी जॉनर के साथ खेलकर खूब फेम कमाया है, बॉलीवुड में संदीप रेड्डी भी कुछ वैसा ही करने की कोशिश में लगे हैं। इस समय उनकी तुलना टारनटिनो से तो नहीं की जा सकती, लेकिन ये जरूर है कि जिस स्तर की हिंसा उन्होंने अपनी फिल्मों में दिखाना शुरू की है, वो बॉलीवुड के लिए नया है। उनकी फिल्म ‘एनिमल’ रिलीज हो चुकी है, बड़े पर्दे पर इसने आग लगा रखी है। सारे रिकॉर्ड धुंआ-धुंआ हो चुके हैं और रणबीर अपने फिल्मी करियर के सातवें आसमान पर पहुंच चुके हैं।

अब ये बात सही है कि फिल्म की सफलता का पैमाना आजकल बॉक्स ऑफिस परफॉर्मेंस से ही मापा जाता है। कौन से क्लब में फिल्म एंट्री करने जा रही है, इस पर सभी की नजर रहती है। लेकिन एक सच्चाई ये भी है कि फिल्मों को समाज का आईना बताया गया है। जो यहां दिखाया जाता है या तो वो समाज में पहले से मौजूद होता है या फिर फिल्म देखकर वैसा ट्रेंड शुरू हो सकता है। ‘एनिमल’ के साथ यही सबसे बड़ी दिक्कत है- जिस एल्फा मेल वाले कॉन्सेप्ट को इस फिल्म ने बढ़ावा देने की कोशिश की है, असल में वो इस समाज में पहले से मौजूद है, कहीं सक्रिय रूप से दिख जाता है तो कहीं समय के साथ दब चुका है।

यानी कि ये फिल्म देखने के बाद एक वर्ग अगर फिर एल्फा मेल वाली विचारधारा से प्रभावित होने लगेगा तो दूसरा वर्ग इस ट्रेंड को फॉलो करने की सोचेगा। दोनों ही सूरत में समाज का पतन होना तय है, झूठी मर्दानगी को बढ़ावा मिलना तय है। ऐसे में ‘एनिमल’ बॉक्स ऑफिस पर चाहे कितने भी सफलता के झंडे गाड़ ले, इन सवालों से तो मेकर्स नहीं बच सकते हैं-

क्या सिर्फ मारधाड़ करने वाला मर्द, शायरी करने वाला कमजोर?

‘एनिमल’ के मेकर्स ने अपनी फिल्म में एक कमाल की बात बोली है। बिना लाग-लपेटे के बता दिया कि असली मर्द तो वो होता है जो अपनी प्रेमिका को प्रोटेक्ट कर सके, जो जरूरत पड़ने पर मारधाड़ कर सके। कहानी भी इसके पीछे की गजब बताई गई है। रणबीर का किरदार फिल्म में कहता है कि जंगल में हजारों साल पहले क्या होता था- महिलाएं तब सिर्फ खाना थोड़ी पकाती थीं, वो तय करती थीं कि कौन से शिकारी के साथ उन्हें बच्चा पैदा करना है, कौन सा शिकारी उनकी रक्षा करेगा, किसके साथ वे रहना पसंद करेंगी। समाज ऐसे ही चलता था। लेकिन तब कमजोर मर्दों को लगने लगा कि उनके पास स्त्रियां कैसे आएंगी?

रणबीर का किरदार आगे बताता है कि उस डर ने ही कवियों को जन्म दे दिया। ये लोग कविताएं, चांद तोड़ने के वादे करने लगे और ऐसे कर महिलाओं को रिझाने लगे। लेकिन समाज के लिए असली काम तो एल्फा मेल ही करते हैं, कमजोर मर्द कविताओं का सहारा लेते हैं।

अब इस कहानी को जानने के बाद आपके मन में क्या पहला सवाल आएगा- क्या कविता करने वाले, शेरों-शायरी करने वाले आशिक नहीं हो सकते? क्या बिना हिंसा के अपने प्यार को नहीं पाया जा सकता? सवाल तो ये भी उठता है कि क्या 21वीं सदी में भी महिलाओं को अपनी जिंदगी में एक एल्फा मेल की जरूरत है? क्या वे इतनी सक्षम नहीं कि अपनी सुरक्षा कर सकें, क्या सिर्फ पुरुषों को ही ये ठेका दिया गया है कि वे आएंगे, चार गुंडों को मारेंगे और महिलाओं के सामने हीरो बन जाएंगे। इस समय मेकर्स के पास इस सवाल का जवाब नहीं है क्योंकि इसी सोच को तो दर्शक भी अपनी मौन सहमति देते दिख रहे हैं।

यौन संबंध बनाने के समय क्या सिर्फ पुरुषों की सहमति?

‘एनिमल’ फिल्म के एक और पहलू पर काफी चर्चा हुई, सेंसर बोर्ड तक को कैची चलानी पड़ी- ये थे फिल्म के बोल्ड सीन। अब बॉलीवुड फिल्मों में बोल्ड सीन्स का होना कोई नई बात नहीं है, एडल्ट सर्टिफिकेट है तो वैसे भी एक छूट रहती है। लेकिन ‘एनिमल’ में एक चीज नोटिस करने लायक है, हर बार जब भी बोल्ड सीन कोई आता है, वहां पर सिर्फ पुरुष के ‘मूड’ को सर्वोपरि बता दिया गया है। फिर चाहे वो फिल्म में रश्मिका के साथ रणबीर के सीन हों या फिर तृप्ति डिमरी के साथ, जो भी कुछ हो रहा है, उसमें पुरुषवादी सोच हावी दिख रही है।

कुछ सीन्स तो ऐसे भी हैं जहां पर रणबीर का किरदार ही जबरदस्ती करता दिख रहा है, कभी स्पैंक करता है तो कभी बाल पकड़ता है। अब इसे आप ‘हिंसा’ की श्रेणी में भी नहीं ला सकते क्योंकि मेकर्स के पास तो अपने तर्क पहले से तैयार हैं। वो तो कह देंगे कि ये किरदार ही ऐसा है, स्क्रिप्ट की जरूरत थी इसलिए रखा गया। लेकिन सवाल तो ये आता है कि आखिर स्क्रिप्ट हर बार पुरुषों पर कैसे मेहरबान हो जाती है?

मर्दानगी के नाम पर जबरदस्ती और धर्म परिवर्तन क्यों?

‘एनिमल’ देखते समय एक चीज पर गौर करना जरूरी है, इसका जो मेन विलेन है उसने अपना धर्म परिवर्तन किया है। वो मुसलमान बना है। मुसलमान बनकर उसने तीन शादियां की हैं। अपनी तीनों बीवियों को वो दबाकर रखता है, जब चाहे उनके साथ शारीरिक संबंध बनाता है। मजे की बात ये है कि उस धर्म परिवर्तन को एक बार भी फिल्म में जस्टिफाई नहीं किया गया। कहने का मतलब ये कि अगर धर्म परिवर्तन नहीं होता, तब भी वो विलेन उतना ही खूंखार रहता, तो किस कारण या मजबूरी उसे मुसलमान दिखाया गया?

वैसे फिल्म के प्लॉट में एक दिलचस्प पहलू ये भी दिखता है कि अनिल कपूर की कंपनी का नाम स्वास्तिक है, उसी कंपनी पर विलेन को कब्जा जमाना है। विलेन बन चुका है मुसलमान, कंपनी का नाम हिंदू परंपराओं से प्रेरित, बताने की जरूरत नहीं कि चालाकी से किस तरह का नेरेटिव सेट करने की कोशिश हुई है। लेकिन मेकर्स इस पर मौन है, कारण वहीं- बॉक्स ऑफिस पर पैसा छापा जा रहा है, शो सारे हाउसफुल जा रहे हैं।

हीरो तो आइडल होता है, उसे खलनायक कैसे बना दिया?

बॉलीवुड फिल्मों में हीरो को लेकर एक कॉन्सेप्ट तो क्लियर है- वो अच्छाई के लिए बुराई का खात्मा करता है। उसका एक ही मकसद है- विलेन को हराना। लेकिन इस हीरो-विलेन वाले अंतर को संदीप रेड्डी ने गायब कर दिया है। ‘एनिमल’ का हीरो भी रणबीर कपूर है और सबसे बड़ा विलेन भी रणबीर कपूर ही दिखाई देता है। आखिर जो इतना खून-खराबा करेगा, जो खुद कानून हाथ में लेकर हजारों लोगों को गोलियों से भून देगा, उसे कहां से कोई हीरो का तमगा देगा। लेकिन ‘एनिमल’ के मेकर्स के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि उन्होंने विलेन जैसे दिख रहे अपने हीरों को ही जरूरत से ज्यादा ग्लोरिफाई किया है। उसका बेरहमी से किसी को मारना ऐसे दिखाया गया है जैसे वो कौन से युद्ध के मैदान में खड़ा हो।

दर्शकों की सीटियों से समाज को डरने की जरूरत!

इस समय मेकर्स के इस एल्फा मेल वाले एक्सपेरिमेंट को जनता का जितना प्यार मिल रहा है, वो ज्यादा चिंताजनक बात है। क्योंकि समझने वाली बात ये है कि हॉल में सीटिंया इस बात पर नहीं बज रहीं कि रणबीर ने कितने लोगों को मार दिया, सीटियां तो तब बज रही हैं जब रणबीर का किरदार अपने वन लाइनर्स से महिलाओं के सामने अपनी मर्दानगी साबित कर रहा है, जब वो खुद को सबसे ताकतवर बताकर दूसरी महिला को चुप करवा रहा है। यानी कि आजादी के बाद जिस भेदभाव को खत्म करने की अभी भी कोशिश जारी है, उसमें एक दीमक बनने का काम संदीप रेड्डी की फिल्म ‘एनिमल’ कर रही है।