अजीत (27 जनवरी 1922-22 नवंबर, 1998)

निजाम की सेना में काम करने वाले बशीर खान अपने बेटे हामिद के भविष्य को लेकर चिंतित थे, क्योंकि उसका जी पढ़ाई-लिखाई में नहीं लगता था। हमीद किताबें लेकर कॉलेज तो जाता था, मगर वे उसे बोझ की तरह लगती थीं। 20-21 साल का हामिद किताबों से पिंड छुड़ाने की तरकीबें सोचता रहता था। हामिद देखने में आकर्षक था। आवाज भी इतनी दमदार थी कि कॉलेज में उसके सहपाठी ईर्ष्या करते और कहते मियां तुम्हें तो फिल्मों में हीरो होना चाहिए। हामिद को भी लगता कि उसके दोस्त सही कह रहे हैं। उसके जैसा गबरू जवान पूरे गोलकुंडा में ढूंढ़े नहीं मिलेगा। मगर पिता सख्त थे और हामिद के लिए डॉक्टर, इंजीनियर से नीचे सोचते नहीं थे। उन्हें तो सिनेमा का नाम सुनना तक पसंद नहीं था। कैसे बनेगा वह हीरो?

कुछेक महीने यही खयाल उधेड़ने और बुनने में निकालने के बाद एक दिन हामिद ने कॉलेज की किताबें बेच डालीं। मिले पैसों से ट्रेन का टिकट खरीद कर जा पहुंचा मुंबई। कुछेक दिन मोहम्मद अली रोड पर अपने एक दोस्त के यहां निकाले। जब सड़क पर रहने की नौबत आई, तो सीमेंट के बड़े-बड़े पाइपों में एक में रहने का ठिकाना ढूंढ़ा। जल्दी ही पता चला कि इन पाइपों में रहने का हफ्ता गुंडों को देना पड़ता है। गुंडों ने हफ्ता मांगा, तो हामिद ने उनकी जमकर पिटाई कर दी। फिर इलाके में गुंडों को जो ‘सम्मान’ मिलता था, लोगों ने हामिद को देना शुरू कर दिया।

कहते हैं जोश और जुनून के आगे सब कुछ छोटा पड़ जाता है। हामिद को कुछेक फिल्मों में भीड़ में खड़े रहने का मौका मिलने लगा। किस्मत ने जोर मारा और हामिद ‘शाहे मिस्र’ (1946) के हीरो बन गए। एक निर्माता को नाम लंबा लगा तो हामिद अली खान को नया नाम दे दिया अजीत। 20 सालों में अजीत मधुबाला, वनमाला, खुर्शीद, नलिनी जयवंत जैसी अभिनेत्रियों के हीरो रहे। 20 साल तक हीरो रहने के बावजूद किस्मत मेहरबान हुई 1966 में, ‘सूरज’ फिल्म में विलेन बनकर।

यह वह दौर था जब देव आनंद की फिल्मों के जरिए संगठित अपराधी गिरोह फिल्मों की कहानियों में उतर रहा था, तो अजीत भी कई फिल्मों में गैंग के बॉस बना दिए गए। उनके पीटर, राबर्ट जैसे गुर्गे खड़े हो गए। साथ में मोना डार्लिंग भी जोड़ दी गई। अजीत के संवाद खूब पसंद किए जा रहे थे और उन्हें लेकर चुटकुले भी बनाए जाने लगे। अजीत ने खलनायिकी को एक नया अंदाज दिया। वह पहले खलनायक थे, जिनको लेकर खूब लतीफे बनाए गए, जिन्हें आज भी सुनाया जाता है। हीरो से ज्यादा विलेन के रूप में अजीत हिट हुए।

1995 में महेश भट्ट निर्देशित ‘क्रिमिनल’ अजीत की आखिरी प्रदर्शित फिल्म थी। इस दौरान अजीत के व्यक्तित्व का एक पहलू छुपा ही रहा। शोहरत-दौलत मिलने के बाद अजीत को पढ़ने का महत्व समझ में आया, तो उन्हें पढ़ने का चस्कालग गया था। कभी जिन किताबों को बेचा था, मानो वे उनके सामने आ खड़ी हुर्इं। शौक इतना बढ़ा कि घर किताबों से भर गया। हर तरह की किताबें घर में थी। अजीत ने किताबों को छोड़ा था, मगर किताबों ने अजीत को नहीं छोड़ा।