निरुपा रॉय का फिल्मों में आना महज इत्तफाक था। किस्सा 1946 का है। मात्र 15 साल की उम्र में कमल रॉय से शादी के बाद कोकिला किशोरचंद्र बलसारा यानी निरूपा रॉय मुंबई आ गर्इं। एक गुजराती फिल्म निर्माता को फिल्म ‘रणकदेवी’ के लिए कलाकारों की तलाश थी। निरुपा रॉय के पति किस्मत आजमाने पहुंच गए। साथ में निरुपा रॉय भी ऐसे ही चली गई थीं। निर्माता ने आॅडीशन के बाद उनके पति को तो रिजेक्ट कर दिया मगर निरुपा रॉय चुन ली गर्इं। फिर एक के बाद एक धार्मिक और पौराणिक फिल्में उन्हें मिलीं, जिनमें से कई में उन्होंने देवी मां की भूमिकाएं निभाई।

निरुपा रॉय की जोड़ी त्रिलोक कपूर के साथ खूब जमी और दोनों ने 50 के दशक में लगभग डेढ़ दर्जन फिल्मों में साथ काम किया। त्रिलोक कपूर पृथ्वीराज कपूर के भाई थे। जैसे नारद की भूमिका के लिए अभिनेता जीवन या सार्इं बाबा के रूप में सुधीर दलवी मशहूर हुए वैसे ही त्रिलोक कपूर भगवान शंकर और निरुपा रॉय पार्वती की भूमिकाओं में लोकप्रिय थे। श्रद्धावश लोग निरुपा रॉय के पांव छूकर आशीर्वाद लेते थे और उन्हें पार्वती के रूप में ही देखते थे। समाज में निरूपा रॉय को खूब मान-सम्मान मिल रहा था।

जब धार्मिक फिल्मों में काम कर निरुपा रॉय ऊब गर्इं और कुछ मारधाड़ वाली फिल्मों में काम करना शुरू किया तो लोगों को यह पसंद नहीं आया। उन्होंने पत्र भेज निरुपा रॉय से ऐसी फिल्में नहीं करने के लिए कहा। 60 के दशक के उत्तरार्ध में उन्होंने फिल्मों में नामचीन अभिनेताओं की मां की भूमिका करनी शुरू की और इसमें भी उन्हें खूब कामयाबी मिली। 70 के दशक में ‘दीवार’ में अमिताभ बच्चन और शशि कपूर की मां की भूमिका ने तो उन्हें चरित्र भूमिकाओं में शिखर पर पहुंचा दिया। आज भी उनकी यह भूमिका याद की जाती है। यह बदलता वक्त ही था जिसने परदे पर देवी मां के रूप में मशहूर निरुपा रॉय को स्मगलर की मां के रूप में मशहूर किया। इतनी मशहूर कि लोग उनकी देवी की पुरानी छवि को भूल गए और वह नैतिकता के धरातल पर खड़ी ममतामयी मां की नई छवि के साथ सामने आर्इं। इस तरह से निरुपा रॉय उन चुनिंदा कलाकारों में शुमार की गर्इं, जिन्हें देवी मां की सशक्त छवि को तोड़ा और एक नई छवि गढ़ी।

निरुपा रॉय खूब लोकप्रिय हो रही थीं। अच्छे मेहनताने के साथ सह कलाकार और दर्शकों का सम्मान उन्हें मिल रहा था। समाज में भी उनका नाम था। मगर पिता की सोच में कोई फर्क नहीं आया था। जब निरूपा रॉय मायके जाती थीं, तो उन्हें चोरी-छुपे जाना पड़ता था। जीवन भर पिता ने उनसे बात नहीं की। इससे पता चलता है तब किसी महिला के लिए सिनेमा में काम करना कितना मुश्किल था। इसीलिए फिल्मजगत को लगातार अपील करनी पड़ती थी कि पढ़े-लिखे और संभ्रात घराने की महिलाएं सिनेमा में आएं।
निरुपा रॉय के पिता अपनी उस बेटी से बात करने के लिए तैयार नहीं थे, दुनिया जिसकी दीवानी थी। जिसके पैर छूकर हजारों लोगों को लगता था कि उन्होंने किसी देवी के चरण छू लिए। यह सम्मान उन्हें उस सिनेमा से मिला था, जिसे समाज हेय दृष्टि से देखता था। पिता को खुश करने की निरुपा रॉय की हर कोशिश नाकाम रही और निरुपा रॉय को जीवन पर्यंत इस बात का मलाल रहा था।