कांग्रेस के लिए तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे किसी बुरे सपने से कम नहीं है। कांग्रेस को पूरी उम्मीद थी कि राजस्थान में रिवाज बदला जाएगा, छत्तीसगढ़ में सत्ता वापसी के साथ इतिहास रचा जाएगा और एमपी में शिवराज के कमल को राज्य से उखाड़ फेंक दिया जाएगा। लेकिन ना राजस्थान से गुड न्यूज आई, ना एमपी में सम्मानजनक सीटें मिली और छत्तीसगढ़ में तो सबसे बड़ा उलटफेर हो गया। अब इस निराशा के बीच कांग्रेस के लिए सिर्फ एक उम्मीद की किरण रही- तेलंगाना।
तेलंगाना में जीत कांग्रेस की या एक रेवंत रेड्डी की?
तेलंगाना चुनाव में कांग्रेस ने प्रचंड जीत दर्ज कर ली है। अभी तक पार्टी के खाते में 63 सीटें चल रही हैं, वहीं केसीआर की बीआरएस को 40 से संतोष करना पड़ रहा है। अब कांग्रेस के लिए ये जीत इस समय किसी संजीवनी से कम नहीं है, जब बाकी राज्यों में करारी हार का सामना करना पड़ गया है, इस इकलौते दक्षिण के राज्य ने देश की सबसे पुरानी पार्टी को लाज बचाने का मौका दे दिया है। ये अलग बात है कि तेलंगाना में जीत का क्रेडिट कांग्रेस हाईकमान से ज्यादा वहां के प्रदेश अध्यक्ष ए रेवंत रेड्डी को दिया जा रहा है।
कैसे सबसे बड़ी हीरो बन गए रेड्डी?
ये नहीं भूलना चाहिए कि दो साल पहले ही तेलंगाना की कमान कांग्रेस ने ए रेवंत रेड्डी को दी थी। जिस समय उन्हें उस राज्य की जिम्मेदारी सौंपी गई, वहां पर केसीआर का एकाएक अधिकार था, बीजेपी सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी बनने के करीब थी और कांग्रेस का सिर्फ सियासी पतन हो रहा था। लेकिन दो साल के अंदर में रेड्डी ने ना सिर्फ कांग्रेस संगठन को तेलंगाना में फिर मजबूत किया, उन्होंने वहां के कार्यकर्ताओं में ऐसा जोश भर दिया कि फिर जीतने के लिए जोरदार लड़ाई लड़ी गई। नतीजे जो सामने आए हैं, वो साफ दिखाते कि कांग्रेस ने तेलंगाना में अप्रत्याशित जीत दर्ज की है।
तेलंगाना में चल गया कर्नाटक का फॉर्मूला
इस बार तेलंगाना में कांग्रेस ने एक नहीं कई ऐसे ऐलान किए जिनका सीधा नाता पैसों से रहा, जिनका सीधा नता जनता से रहा। युवाओं को बेरोजगारी भत्ता देने से लेकर महिलाओं के खाते में पैसे देने तक, कर्नाटक की तरह इस राज्य में भी कांग्रेस ने हर वो वादे किए जिसने जनता का वोट दिलवाया है। तेलंगाना में कांग्रेस ने बेरोजगार युवाओं को चार हजार रुपये भत्ता देने की बात कही है, महिलाओं को हर महीने 2500 रुपये की सहायता, किसानों को वित्तीय सहायता के तौर पर 15000 रुपये तक का ऐलान हुआ। नतीजे बता रहे हैं कि जनता ने दिल खोलकर इन वादों को स्वीकार कर लिया है।
टाइमिंग वाला इमोशनल कार्ड भी कारगर
इसके ऊपर तेलंगाना में केसीआर की पार्टी के प्रति जमीन पर कई जगहों पर एंटी इनकमबैंसी जबरदस्त रही, विधायकों के प्रति नाराजगी थी, भ्रष्टाचार के खिलाफ आक्रोश था, इस सब का फायदा कांग्रेस ने भरपूर अंदाज में उठाया है। इस बार रणनीति में एक बड़ा बदलाव ये भी देखने को मिला कि कांग्रेस ने समय-समय पर इमोशनल कार्ड खेलने का काम किया। असल में तेलंगाना साल 2014 में आंध्र प्रदेश से अलग होकर बना था, उस एक राज्य बनाने को लेकर भी कई आंदोलन करने पड़े थे। कई लोगों को अपनी जिंदगी की कुर्बानी भी देनी पड़ी थी।
इस चुनाव में कांग्रेस ने उस मुद्दे को भी लगातार उठाया, हर बार तेलंगाना बनाने वाले वीरों को सम्मान देने की बात कही। अब जनता के जनादेश ने कांग्रेस को ये काम पूरा करने का मौका दे दिया है। केसीआर को भी संदेश मिल गया कि वे जनता के इस दर्द को पिछले 10 सालों में एक बार भी नहीं समझ पाए। अब केसीआर से तो और भी कईं सारी चूक हुई हैं, लेकिन कांग्रेस ने रणनीति के तहत अपने कैंपेन को आगे भी बढ़ाया और अपने दिग्गज नेताओं का भी सही समय पर सही तरीके से इस्तेमाल किया।
तेलंगाना में जीत, लेकिन क्या सिर्फ दक्षिण तक सीमित कांग्रेस?
असल में कुछ महीने पहले ही दक्षिण के राज्य कर्नाटक में कांग्रेस ने अपनी सबसे बड़ी जीत दर्ज की थी। उस जीत में सबसे बड़ा योगदान तीन चेहरों का रहा- मुख्यमंत्री सिद्धारमैया, डिप्टी सीएम डीके शिवकुमार और कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे। अब इन तीनों ही चेहरों ने कर्नाटक अंदाज में ही तेलंगाना में जोर-शोर से प्रचार करने का काम किया है। बड़ी बात ये है कि तेलंगाना के जो भी जिले कर्नाटक से सटे हुए हैं, वहां पर कांग्रेस ने अलग रणनीति पर काम करते हुए उन्हीं नेताओं को वहां की जिम्मेदारी सौंपी गई जिन्होंने पार्टी को कर्नाटक में भी जीत दिलाने का काम किया।
अब इस रणनीति का कांग्रेस को जमीन पर फायदा मिला है। खड़गे की वजह से दलित वोट साथ आया है तो रेवंत रेड्डी की वजह से सवर्ण वोट भी पार्टी के खाते में गया है। वैसे कांग्रेस के लिए तेलंगाना में मिली ये जीत बहुत बड़ी इसलिए भी हो जाती है क्योंकि पार्टी को दूसरे चुनावी राज्यों में उतनी ही बड़ी पराजय का सामना करना पड़ा है। कांग्रेस कहने को एक राष्ट्रीय पार्टी है, लेकिन हिंदी पट्टी राज्य में उसका जिस तरह से सूपड़ा साफ हुआ है, सवाल उठने लगा है कि क्या देश की सबसे पुरानी पार्टी अब दक्षिण तक ही सीमित रह जाएगी?
हिंदी पट्टी में सफाया, साउथ से भरपाई?
ये सवाल इसलिए भी उठ रहा है क्योंकि उत्तर भारत में अगर हिमाचल को छोड़ दिया जाए तो जनता ने कांग्रेस के नेरेटिव को कहीं नहीं खरीदा है, उसकी ना विचारधारा को समर्थन मिला है और ना ही उसके उठाए मुद्दे जनता तक कनेक्ट कर पाए हैं। लेकिन बात जब दक्षिण की आती है कर्नाटक में तो पहले ही प्रचंड बहुमत के साथ सरकार बना ली गई है, अब तेलंगाना में भी पहली बार कांग्रेस सरकार बनाने में कामयाब हो गई है। ये ट्रेंड बता रहा है कि दक्षिण में कांग्रेस की स्वीकृति ज्यादा है। लेकिन क्या कांग्रेस खुद को सिर्फ दक्षिण की पार्टी के रूप में देखना चाहती है? क्या वो खुद ये मान चुकी है कि उत्तर भारत में उसे उतनी तवज्जो नहीं मिल रही? ये वो सवाल हैं जो लगातार मिल रही हारों के बाद अब कांग्रेस के लिए चुनौती बन चुके हैं। अगर समय रहते इनका समाधान नहीं हुआ तो आगामी लोकसभा चुनाव में भी पार्टी को इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है।