मोदी सरकार को सत्ता में आए 10 साल हो चुके हैं, लगातार दो बार देश की जनता ने उन्हें पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने का मौका दिया है। आजाद भारत में ऐसा कई दशकों बाद हुआ है कि किसी सरकार को दो बार प्रचंड जनादेश मिला हो। अब लोकतंत्र में अगर जनादेश मायने रखता है तो सरकार का रिपोर्ट कार्ड भी उतना ही महत्वपूर्ण माना जाता है। हर पांच साल बाद अगर कोई सरकार फिर वोट मांगने के लिए जनता के बीच जाती है तो उसे भी ये बताना चाहिए कि उसने अपने कितने वादे पूरे किए।

अब उन्हीं वादों को परखने के लिए, उन्हीं वादों की ग्राउंड रियलिटी समझने के लिए हम चुनावी मौसम में शुरू कर रहे हैं खास पेशकश ‘हिसाब जरूरी है’। अपने नाम के अनुरूप इस सीरीज के जरिए मोदी सरकार के सबसे बड़े फ्लैगशिप प्रोग्राम्स की असल सच्चाई को समझने की कोशिश होगी। जानने का प्रयास रहेगा कि अ,सल में कितने लोगों तक सरकार की योजनाओं का फायदा पहुंचा है, कहां पर चूक हुई है और कहां पर सही मायनों में सरकार ने कोई क्रांति लाने का काम किया है।

क्या है स्मार्ट सिटी मिशन?

इस सीरीज के पहले पार्ट में बात मोदी सरकार की सबसे बड़ी महत्वकांक्षी योजना- स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट की। साल 2015 में मोदी सरकार ने इस प्रोजेक्ट का ऐलान किया था। इस प्रोजेक्ट के तहत सरकार का विजन था कि देश के कुल 100 शहरों को स्मॉर्ट बनाया जाएगा। 2015 में तो सिर्फ इस योजना का ऐलान किया गया था, लेकिन फिर तीन साल के अंदर में कुल 100 उन शहरों का चयन हुआ जिन्हें स्मार्ट बनाने का काम होना था।

स्मार्ट होने का क्या क्राइटेरिया?

पर्याप्त वाटर सप्लाई, 24 घंटे बिजली आपूर्ति, सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट, गरीबों को आवास, किफायती आवास, बड़े स्तर पर डिजिटलाइजेशन,बच्चे-बुजुर्ग-महिलाओं को सुरक्षा की गारंटी और अच्छी शिक्षा और अस्पताल। अब ये वो पैरामीटर हैं जो किसी भी स्मार्ट सिटी को डिफाइन करते हैं। सरकार की मंशा ये भी थी कि वो नई सिटी का निर्माण नहीं करेगी, बल्कि इस प्रोजेक्ट के जरिए जो सिटी पहले से ही मौजूद हैं, उनकी सुविधाओं को और ज्यादा बेहतर कर लोगों के जीवन स्तर को सही करने का काम किया जाएगा।

अब सरकार ने अपने इस मिशन के लिए बजट में 48 हजार करोड़ रुपये निकाले थे, कहा था कि हर सिटी को 100 करोड़ के करीब हर साल मिलेंगे। अब इस मिशन के लिए पैसे खर्च करने का तरीका एकदम सिंपल था। इसे सरकार ने Centrally Sponsored Scheme (CSS) माना था। यहां पर केंद्र सरकार तो अपनी तरफ से पैसा दे ही रही थी, उतना ही पैसा राज्य/ULB को भी देना था। ऐसे में असल में हर सिटी को बेहतर बनाने के लिए भारी-भरकम राशि का इंतजाम हुआ था।

धीमी रफ्तार, 2 बार बढ़ी डेडलाइन

अब वैसे तो सरकार के इस मिशन का असर जमीन पर दिखना शुरू हुआ है, लेकिन रफ्तार काफी धीमी है, इसी वजह से दो बार डेडलाइन को आगे बढ़ा दिया गया है। पहले मोदी सरकार कह रही थी कि हम जून 2021 तक 100 सिटी को स्मार्ट बना देंगे। उसके बाद अब डेडलाइन 2024 जून तक आ चुकी है, लेकिन अभी भी सारे प्रोजेक्ट समय रहते पूरे हो जाएंगे, इसकी उम्मीद कम ही दिखाई पड़ती है।

चुनाव का पूरा शेड्यूल

अब स्मार्ट सिटी को लेकर देश की संसद में ही एक रिपोर्ट पिछले साल फरवरी में पेश की गई थी। उस रिपोर्ट ने कुछ पैरामीटर्स पर सरकार का उत्साह बढ़ाया, लेकिन कुछ ऐसे भी पहलू सामने आए जिससे पता चला कि समान रफ्तार से विकास नहीं किया जा रहा। रिपोर्ट के मुताबिक 7,804 प्रोजेक्ट को सरकार ने पूरा कर दिया, इन प्रोजेक्ट्स पर कुल 1.8 लाख करोड़ रुपये खर्च हुए। वहां भी 72 फीसदी प्रोजेक्ट तो अप्रैल 30, 2023 तक ही पूरे कर लिए गए।

इंफ्रास्ट्रक्चर पर ज्यादा फोकस

उसी रिपोर्ट में जानकारी दी गई कि सरकार का प्राइम फोकस इंफ्रास्ट्रक्चर को बेहतर करने पर रहा क्योंकि उसने 232 उन परियोजनाओं को भी पूरा किया जिनका सीधा कनेक्शन कार पार्किंग और ट्रांसपोर्ट सेक्टर से जुड़ा दिखा। इसी कड़ी में 22,785 करोड़ के मोबिलिटी प्रोजेक्ट्स को भी सरकार ने संपन्न करने का काम किया। अब ये रिपोर्ट देख लगता है कि केंद्र सरकार ने सही मायनों में स्मार्ट सिटी मिशन को गंभीरता से लिया है और समय रहते कई प्रोजेक्ट्स पूरे भी हुए हैं। लेकिन ये सिर्फ आधी सच्चाई है क्योंकि इसका पूरा वर्जन पार्लियामेंट स्टैंडिंग कमेटी की एक दूसरी रिपोर्ट से समझ आता है।

कहीं 90 फीसदी… कहीं सिर्फ 10% काम

पार्लियामेंट स्टैंडिंग कमेटी ने पाया है कि 100 में से 68 स्मार्ट सिटी ऐसी हैं जो अपने तय टारगेट्स को पूरा नहीं कर पा रही हैं। हुआ ये है कि कुछ शहरों की परफॉर्मेंस तय टारगेट्स से भी अच्छी रही हैं, वहीं कई ऐसी सिटी हैं जिनका प्रदर्शन बिल्कुल ही लचर रहा है। उदाहरण के लिए पता ये चला है कि वाराणसी, आगरा, उदयपुर जैसे शहरों ने 90 फीसदी तक स्मार्ट सिटी मिशन के अपने काम पूरे किए हैं, वहीं फरीदाबाद, शिलौंग ने सिर्फ 10 फीसदी काम ही पूरे किए। ये भी जानकारी सामने आई है कि गैंगटोक, अटल नगर, शिलांग, सिलवासा, ईटानगर, पुडुचेरी, सहारनपुर और पोर्ट ब्लेयर ने अभी तक क्रमश: 16%, 23%, 24%, 28%, 31%, 32%, 35% और 39% परियोजनाएं पूरी हो पाई हैं। स्टैंडिंग कमेटी ने यहां तक कहा कि जल्दी काम करने के चक्कर में प्रोजेक्ट के तहत कुछ ऐसे विकास कार्य भी किए गए जो शायद उतने जरूरी कभी थे ही नहीं।

अब पार्लियामेंट कमेटी ने तो इस साल भी अपनी एक रिपोर्ट जारी की है, उस रिपोर्ट में भी स्मार्ट मिशन को लेकर जो बातें कहीं गई हैं वो सरकार को ज्यादा खुश होने का मौका नहीं दे रहीं। रिपोर्ट में कहा गया कि 57 सिटी ऐसी हैं जहां पर प्रोग्रेस 80 से 100 फीसदी तक हुई है। पूरे देश में सिर्फ मदुराई ऐसा शहर है जहां 100 फीसदी काम किया गया है। 14 शहर ऐसे सामने आए हैं जहां पर सिर्फ 50 फीसदी या फिर उससे भी कम विकास कार्य पूरे हो पाए हैं।

रफ्तार धीमी, कहां चूक कर रही सरकार?

हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट बताती है कि 10 शहरों के 400 प्रोजेक्ट वर्तमान में ऐसे चल रहे हैं जो जून 2024 की डेडलाइन भी मिस करने वाले हैं। एक्सपर्ट्स बता रहे हैं कि धीमी रफ्तार के कई कारण हैं। एक तो जिन प्रोजेक्ट्स को चुना जा रहा है, वो सही नहीं हैं। इसके ऊपर केंद्र सरकार और राज्य सरकार के बीच में तालमेल सही नहीं चल रहा है और ऐसा भी देखा जा रहा है कि प्राइवेट सेक्टर निवेश करने में उतनी दिलचस्पी नहीं दिखा रहा। ऐसे में आने वाले समय में स्मार्ट सिटी मिशन में चुनौतियां और ज्यादा आने वाली हैं।

सरकार के लिए बड़ा चिंता का सबब ये भी है कि सिर्फ 6 फीसदी प्रोजेक्ट ही PPP मॉडल के जरिए फंडेड हो पाए हैं। PPP मॉडल का मतलब होता है- पब्लिक-प्रइवेट पार्टनरशिप। यहां पर सरकारी परियोजनाओं में प्राइवेट कंपनियां निवेश करती हैं। अब स्मार्ट सिटी को लेकर तय ये हुआ था कि 21 फीसदी प्रोजेक्ट इसी PPP मॉडल के फंडेड किए जाएंगे, लेकिन असल आंकड़ा सिर्फ 6 प्रतिशत बैठा है। ये बताने के लिए काफी है कि रफ्तार तो सुस्त चल ही रही है, प्राइवेट सेक्टर की दिलचस्पी भी कम होती जा रही है।

इसका मतलब ये है कि मोदी सरकार ने स्माट सिटी मिशन के तहत विकास कार्य जरूर किया है, कुछ शहरों ने शानदार प्रदर्शन भी किया है। लेकिन अभी भी असल सपने से जमीनी हकीकत कोसों दूर दिखाई देती है। यही वजह भी है कि आगामी लोकसभा चुनाव में मोदी सरकार स्मार्ट सिटी मिशन का उतना जिक्र ही नहीं कर रही।