लीला रॉय एक समाजवादी क्रांतिकारी थीं। असम में जन्मी और बंगाल से अपनी पहचान बनानी शुरू की। लीला रॉय ने 1920 के दशक में अन्य बंगाली महिलाओं को बम बनाना सिखाया। इसके अलावा फायर आर्मस को संभालना और ‘देशद्रोही’ पैंफलेट्स को प्रसारित करना जैसी गतिविधियों में शामिल रहीं। बाद में सन 1946 में, उन्हें संविधान सभा के लिए चुना गया था, जो कि स्वतंत्र भारत के संविधान का निर्माण करने वाली 15 महिलाओं में से एक थीं। दशकों तक इन महिलाओं द्वारा निभाई गई भूमिका को नहीं भुलाया जा सकता है। लीला रॉय ने क्रांतिकारी रास्ता छोड़ दिया और 1939 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सदस्य बन गईं। फिर वह सुभाष चंद्र बोस के फॉरवर्ड ब्लॉक की सदस्य बन गईं। 1942 में, उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लिया और उन्हें गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। लीला रॉय ने देश के विभाजन के विरोध में संविधान सभा भी छोड़ दी थी।

ये थीं सविंधान सभा में शामिल

अम्मू स्वामीनाथन: वह साल 1946 में मद्रास निर्वाचन क्षेत्र से संविधान सभा का हिस्सा बन गईं। वह साल 1952 में लोकसभा के लिए और साल 1954 में राज्यसभा के लिए चुनी गईं। उन्होंने भारत स्काउट्स एंड गाइड (1960-65) और सेंसर बोर्ड की भी अध्यक्षता की।
दक्षिणानी वेलायुद्ध: दक्षिणानी वेलायुद्ध शोषित वर्गों की नेता थीं। साल 1945 में, दक्षिणानी को कोचीन विधान परिषद में राज्य सरकार द्वारा नामित किया गया था। वह साल 1946 में संविधान सभा के लिए चुनी गयी पहली और एकमात्र दलित महिला थीं।

सरोजिनी नायडू: सरोजिनी नायडू भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष होने वाली भारतीय महिला थीं और उन्हें भारतीय राज्य गवर्नर नियुक्त किया गया था। साल 1924 में उन्होंने भारतीयों के हित में अफ्रीका की यात्रा की और उत्तरी अमेरिका का दौरा किया| भारत वापस आने के बाद उनकी ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों के चलते उन्हें कई बार जेल भी जाना पड़ा। सरोजिनी नायडू अपनी साहित्यिक शक्ति के लिए भी जानी जाती थी।
विजया लक्ष्मी पंडित: विजया लक्ष्मी पंडित भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की बहन थीं। साल 1932 से 1933, साल 1940 और साल 1942 से 1943 तक अंग्रेजों ने उन्हें तीन अलग-अलग जेल में कैद किया था। राजनीति में विजया का लंबा करियर आधिकारिक तौर पर इलाहाबाद नगर निगम के चुनाव के साथ शुरू हुआ। सभी कांग्रेस पार्टी के पदाधिकारियों की तरह उन्होंने साल 1939 में ब्रिटिश सरकार की घोषणा के विरोध में इस्तीफा दे दिया।

सुचेता कृपलानी:  सुचेता विशेषरूप से साल 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में उनकी भूमिका के लिए याद किया जाता है। कृपलानी ने साल 1940 में कांग्रेस पार्टी की महिला विंग की भी स्थापना की।
एनी मास्कारेन: एनी मास्कारेन त्रावणकोर राज्य से कांग्रेस में शामिल होने वाली पहली महिलाओं में से एक थीं और त्रावणकोर राज्य कांग्रेस कार्यकारिणी का हिस्सा बनने वाली पहली महिला बनीं। अपनी राजनीतिक सक्रियता के लिए, उन्हें साल 1939 से साल 1977 से विभिन्न अवधि के लिए कैद किया गया था। मास्कारेन भारतीय आम चुनाव में साल 1951 में पहली बार लोकसभा के लिए चुनी गयी थी।

बेगम एजाज रसूल: वह संविधान सभा की एकमात्र मुस्लिम महिला सदस्य थी। साल 1950 में, भारत में मुस्लिम लीग भंग होने के बाद वह कांग्रेस में शामिल हो गयी। वह साल 1952 में राज्यसभा के लिए चुनी गयी थी और साल 1969 से साल 1990 तक उत्तर प्रदेश विधानसभा की सदस्य रही।
दुर्गाबाई देशमुख: दुर्गाबाई देशमुख ने 12 साल की उम्र में उन्होंने गैर-सहभागिता आंदोलन में भाग लिया और आंध्र केसरी टी प्रकाशन के साथ उन्होंने मई 1930 में मद्रास शहर में नमक सत्याग्रह आंदोलन में भाग लिया। साल 1936 में उन्होंने आंध्र महिला सभा की स्थापना की, जो एक दशक के अंदर मद्रास शहर में शिक्षा और सामाजिक कल्याण का एक महान संस्थान बन गया।

हंसा जिवराज मेहता: हंसा ने इंग्लैंड में पत्रकारिता और समाजशास्त्र की पढ़ाई की। एक सुधारक और सामाजिक कार्यकर्ता होने के साथ-साथ वह एक शिक्षिका और लेखिका भी थीं। वह साल 1926 में बॉम्बे स्कूल कमेटी के लिए चुनी गयी और साल 1945-46 में अखिल भारतीय महिला सम्मेलन की अध्यक्ष बनी।
कमला चौधरी: शाही सरकार के लिए अपने परिवार की निष्ठा से दूर जाने से वह राष्ट्रवादियों में शामिल हो गई और साल 1930 में गांधी द्वारा शुरू की गई नागरिक अवज्ञा आंदोलन में भी उन्होंने सक्रियता से हिस्सा लिया| वह अपने पचासवें सत्र में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की उपाध्यक्ष थी।

मालती चौधरी: साल 1921 में, सोलह साल की उम्र में मालती चौधरी को शांति-निकेतन भेजा गया, जहां उन्हें विश्व भारती में भर्ती कराया गया। उन्होंने नाबकृष्ण चौधरी से विवाह किया, जो बाद में ओडिशा के मुख्यमंत्री बने और साल 1927 में ओडिशा चले गए। नमक सत्याग्रह के दौरान, मालाती चौधरी और उनके पति भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए और आंदोलन में हिस्सा लिया।
पूर्णिमा बनर्जी: पूर्णिमा बनर्जी इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश) में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कमेटी की सचिव थी। वह उत्तर प्रदेश की महिलाओं के एक कट्टरपंथी नेटवर्क में से थी जो साल 1930 के दशक के अंत में वे स्वतंत्रता आंदोलन में सबसे आगे थीं।

राजकुमारी अमृत कौर: अमृत ​​कौर ने ट्यूबरकुलोसिस एसोसिएशन ऑफ इंडिया व सेंट्रल लेप्रोसी एंड रिसर्च इंस्टीट्यूट की स्थापना की| साथ ही, वह लीड ऑफ रेड क्रॉस सोसाइटी के गवर्नर बोर्ड और सेंट जॉन एम्बुलेंस सोसाइटी की कार्यकारी समिति की अध्यक्षता में उपाध्यक्ष थी। साल 1964 में उनकी मृत्यु होने के बाद द न्यूयॉर्क टाइम्स ने उन्हें अपनी देश की सेवा के लिए  ‘राजकुमारी’ की उपाधि दी।
रेनुका रे: रेनुका रे ने साल 1934 में, एआईडब्ल्यूसी के कानूनी सचिव के रूप में उन्होंने ‘भारत में महिलाओं की कानूनी विकलांगता’ नामक एक दस्तावेज़ प्रस्तुत किया| रेणुका ने एक समान व्यक्तिगत कानून कोड के लिए तर्क दिया और कहा कि भारतीय महिलाओं की स्थिति दुनिया में सबसे अन्यायपूर्ण में से एक थी। उन्होंने अखिल बंगाल महिला संघ और महिला समन्वयक परिषद की स्थापना की।