अगर आप दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) में दाखिला लेने वालों में हैं और बाहर से आए हैं तो यह भ्रम दूर कर लीजिए कि दिल्ली जैसे महानगर में कौन किसकी सुध लेता है! तकरीबन सभी कॉलेजों के बाहर इन दिनों मेहमाननवाजी की मानो होड़ लगी है। अच्छी पोशाक और संतुलित हाव-भाव में अपने व्यवसाय के मंजे लोग कॉलेज के गेट पर खड़े मिलेंगे। बाहरी छात्र-अभिभावकों की तुरंत पहचान कर लेना उनकी खूबियों में से एक है। हाय-हैलो से नजदीक आकर वे अपने मिशन में लग मानो हर मर्ज की दवा बन जाते हैं। मसलन दयाल सिंह कॉलेज के बाहर खड़ी भूरे रंग की सेंट्रों कार सीधे साउथ एक्सटेंशन पार्ट-1 चलने का आॅफर देगी। इसका सफेद पोशाकधारी चालक बीना शुल्क पीजी दिखाने का आॅफर देगा। बीच बहस में अच्छी पोशाक में मीना (बदला नाम) प्रकट होगी। अपने पीजी (जो केवल लड़कियों के लिए है) की खूबियां बताकर छात्र, अभिभावकों से उसे चलकर देखने और फिर निर्णय लेने की अपील करेगी। फिर ठंडा-गर्म की अर्जी के बीच पीजी की फीस पर चर्चा होती है। सौदा पटा तो ठीक नहीं तो सस्ते विकल्प वाले हैं न! दूसरे इसके बाद की कमान संभालते हैं।
डीयू में इन दिनों दाखिले की प्रक्रिया अंतिम चरण में है। दाखिले की होड़ में छात्र-अभिभावकों के ‘मददगार’ मीना जैसे कई लोग हैं। कॉलेजों के गेट पर सेंट्रो से लेकर इनोवा तक की गाड़ियां मिलेंगी। इसमें बैठे लोग छात्रों को 7000 से लेकर 18,000 तक प्रति महीने पीजी के आॅफर दे रहे हैं। कॉलेज के लोकेशन के हिसाब से नजदीकी इलाकों में सरकारी नियमों की धज्जियां उड़ाकर दिल्ली में यह व्यवसाय इन दिनों जोरों पर है। कैंपस के आसपास के मुहल्ले में बिल्डरों ने मकानों को खरीद कर या लीज-किराए पर लेकर यह धंधा शुरू किया है। यह व्यावसायिक काम रिहायसी इलाकों में किया जा रहा है। ज्यादातर बिना पंजीकरण और बिना बोर्ड-बैनर के चल रहे हैं। पीजी में फीस तो मोटी है, लेकिन सुविधाओं के नाम पर यहां टोटा है। मसलन कालकाजी इलाके के आसपास सौ से ज्यादा मकान में पीजी चल रहे हैं। यह सब रिहायसी इलाकों में खासकर उन मकानों में चल रहे हैं, जिसे बिल्डरों ने बेचने के लिए बनाया। लेकिन महंगे होने और ग्राहक न मिलने से खाली पड़े हैं। यह सब ‘पीजी’ हैं। न पार्किंग और न ही सुरक्षा। इतना ही नहीं व्यवयायिक दर पर सरकारी शुल्क भी नहीं दे रहे हैं। हालांकि छात्रों से वसूली की दर व्यावसायिक है। लैपटॉप, प्रेस, एसी की सुविधा के लिए छात्रों से अलग से बिजली बिल लिए जा रहे हैं, और वो भी व्यावसायिक दर से।
यही हाल मुखर्जीनगर और साउथ एक्सटेंशन का है। इन सबके दलाल कॉलेजों के गेट पर इन दिनों डेरा डाले मिलेंगे। कई कॉलेजों में इनकी पहुंच अंदर तक है। कैंटीन तक में दलालों के पोस्टर देखे जा सकते हैं। कॉलेजों की सूचना पट्टिका पर भी वे मौजूद हैं। कैंपस में इसके इतर भी व्यवसायी सक्रिय हैं। मसलन, वोडाफोन का एजंट पचास रुपए में दो सिम और 140 रुपए फ्री टाकटाइम के साथ इंटरनेट फ्री का रिकार्डेड संदेश लेकर घूम रहा है। एअरटेल भी पीछे नहीं है। मिलते-जुलते कई आॅफर हैं यहां। दिल्ली का पहचानपत्र नहीं भी है तो कोई बात नहीं। विकल्प है। कॉलेज आईकार्ड के साथ, पीजी या किराए के कमरे वाले इसका समाधान दे रहे हैं। इसके अलावा छात्राओं के लिए पुरानी स्कूटी की दुकान कहां-कहां हैं? इन दिनों कैंपस व कॉलेजों के गेट पर इसकी सूचना उपलब्ध है। रेहड़ी पटरी वालों के साथ मिलकर इसके एजंट अपने मिशन पर हैं। सस्ती से सस्ती स्कूटी या मोटरसाइकिल का आॅफर यहां मिलेगा।
इतना ही नहीं कारपोरेट वेश में कामचलाऊ अंग्रेजी के साथ निजी विश्वविद्यालयों के एजंट से लेकर निजी संस्थानों मसलन एअर होस्टेस संस्थान, फैशन टेक्नोलॉजी के अलावा टेली मार्केटिंग व नेटवर्किग-कंप्यूटर संस्थानों की सक्रियता भी इन दिनों कॉलेजों के गेट पर है। यह जमावड़ा अनायास नहीं है।दिल्ली विश्वविद्यालय में आवेदन कर दाखिला न पा सकने वाले करीब पौने दो लाख छात्र हैं। जो इन संस्थानों के लिए ‘चांदी’ हैं। डीयू के उत्तरी परिसर के छात्र मार्ग और एसओएल (पत्रचार) केंद्र पर ऐसे लोग ज्यादा सक्रिय हैं। छात्र के महंगे फीस के सवाल पर यहां मौजूद एजंट पार्ट टाइम जॉब मुहैया कराने की बात कर रहे हैं।
