यदि मुस्लिम अपने हिंदू दोस्तों के साथ होली के उत्सव में शामिल नहीं होता है तो वह क्या किसी तरह से सांप्रदायिक हो सकता है? इसके लिए क्या उसे दोषी ठहराया जा सकता है? उससे अक्सर कहा जाता था कि होली के दिन मुगल दरबार रंगों से सराबोर हो जाते थे। इस तरह यह भारत की समकालिक संस्कृति का प्रतीक था। इसका धर्म से कोई लेना देना नहीं था लेकिन इसका जुड़ाव वसंत से था। ये सारे विरोधाभास सही हैं, लेकिन इसका साफ जवाब ‘नहीं ‘है। कारणः मुस्लिम को यह पूरा अधिकार है कि वह यह तय कर सकता है कि उसे होली या किसी अन्य त्योहार में शामिल होना है या नहीं होना है। इसके बावजूद वह सेक्युलर रह सकता है।
मुख्यधारा में यह धारणा है कि एक मुसलमान, अच्छा मुसलमान तभी होता है जब वह सभी त्योहारों को मनाए। जो इससे अलग रहते हैं उन्हें रुढ़िवादी और असहयोगी मान लिया जाता है। यह धारणा अपने आप में सांप्रदायिक है और इसमें पसंद के लिए कोई जगह नहीं है।
हाल ही में एक डिटर्जेंट ब्रांड के विज्ञापन को ‘हिंदू विरोधी’ होने के कारण आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा है। यह विज्ञापन ज्यादा प्रगतिशील हो जाता यदि विज्ञापन में मुस्लिम की भूमिका निभाने वाला लड़का यह कहता कि वह होली नहीं खेलना चाहता है। और इसके बाद अन्य बच्चे खुशी-खुशी उसे जाने देते। इससे हम समग्रता, सौहार्द और सबसे महत्वपूर्ण पसंद और सहमति का मजबूत संदेश देते। भागीदारी और मानकों का पालन करने की यह उम्मीद एक समान नहीं है और ये हमेशा विशेषाधिकार द्वारा निर्देशित होती है।
उदाहरण के लिए आप नोएडा, ग्रुरुग्राम या गाजियाबाद के बहुमंजिले अपार्टमेंट में जाएंगे तो आप देखेंगे कि यहां के लोग होली, दिवाली और जन्माष्टमी मनाना चाहते हैं, जबकि धर्मनिरपेक्षता का चोला पहने ये लोग आसानी से ईद को अनदेखा कर देते हैं। अधिकतर स्कूल, जहां विज्ञापन में दिखाए गए आयुवर्ग के बच्चे मूल्यों की शिक्षा लेते हैं, मुस्लिम त्योहारों को भुला दिया जाता है। जबकि यहां हिंदू त्योहारों को भारतीय रूप में और ईसाई त्योहारों को धर्मनिरपेक्ष रूप में माना जाता है।
हम लोग इस तरह के दोहरे मानदंडों के साथ जीने के इतने अभ्यस्त हो चुके हैं कि इस तरह की मिट रही चीजों पर किसी का ध्यान ही नहीं जाता है। विज्ञापन के अंत में लड़की, लड़के से कहती है, ‘बाद में रंग पड़ेगा।’ लेकिन क्या यह जरूरी था? बच्चे का होली का त्योहार मनाने से इनकार करना देश के सामाजिक तानेबाने को नुकसान नहीं पहुंचाता। इसके विपरीत इससे यह तानाबाना और मजबूत होता।
ऐसे सैकड़ोंं, हजारों की संख्या में मुसलमान हैं जो हिंदू त्योहारों में शामिल नहीं होते हैं। इसी तरह हिंदुओं से भी रमजान के दौरान रोजा रखने की उम्मीद नहीं होती है, ना ही पूरा देश ईद के दिन गले मिलकर ईद मुबारक कहता है। ना तो सक्रियता और ना ही हमारी निष्क्रियता हमारे सांप्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ती है। इस विज्ञापन से हिंदुओ का गुस्सा भड़क गया।
आज के जिस ध्रुवीकरण के दौर में हम रह रहे हैं ऐसे में ‘लव जिहाद’ का आरोप भी लग जाए तो हैरानी नहीं होगी। जबकि विज्ञापन में मौजूद बच्चे मुश्किल से छह-सात साल के हैं। हिंदू कट्टरपंथियों को लगता है कि मुस्लिम लड़का हिंदू लड़की को अपने प्यार में पड़ने पर मजबूर कर उसे जबरन इस्लाम कबूल करने को कहेगा। हां, यह हास्यास्पद है, लेकिन कई लोग जो #BoycottSurfExcel पर अपनी प्रतिक्रिया दे रहे हैं, का कहना सही है कि जो इस अभियान के पीछे हैं उन्हें खुद को साफ करने की जरूरत है।
बेशक, विज्ञापन ‘लव जिहाद’ को बढ़ावा नहीं देता, लेकिन यह क्या करता है? यह डिटर्जेंट ब्रांड को धर्मनिरपेक्षता की थीम के साथ प्रोमोट करने के लिए पुरानी खराब रुढ़ियों को बरकरार रखता है। बच्चे भी इसके अभ्यस्त हो रहे हैं। यह खतरनाक है। बच्चे, जो महज छह-सात साल के हैं उन्हें यह पहले से ही पता है कि वे हिंदू, मुसलमान, ईसाई और सिख हैं? क्या वे मानते हैं कि हिंदू और मुस्लिम अलग-अलग कपडे़ पहनते हैं। क्या उन्हें पता है कि हिंदू और मुसलमान नाम भी होते हैं? यह डरावना नहीं है?
विज्ञापन के समान ही एक युवा सफेद कुर्ता, पायजामा और गोल टोपी पहन कर होली में मस्जिद के लिए निकलता है तो हम इसे कैसे देखते हैं? क्यों उसे मुस्लिम के रूप में दिखाया गया है जबकि बाकी को हिंदू के रूप में। क्यों यह बताया गया है कि होली हिंदुओं का त्योहार है और मस्जिद वह जगह है जहां मुसलमान जाते हैं? क्या हम अपने बच्चों को धर्म और उसके विरोधों व रुढ़ियों से अलग नहीं रखना चाहिए? उन्होंने क्यों नहीं विज्ञापन में सिर्फ व्यस्कों को दिखाया और बच्चों को अकेला छोड़ दिया है?