मस्तिष्क के केंद्रीय तंत्रिका तंत्र में न्यूरॉन की सहायता करने वाली ग्लियल कोशिकाओं के ट्यूमर ग्लियोब्लास्टोमस (जीबीएम) की पहचान के लिए भारतीय विज्ञान संस्थान के विज्ञानियों ने एक नई पद्धति की खोज की है। इससे इस ट्यूमर की पहचान जल्दी और सस्ते में हो सकेगी।
भारतीय विज्ञान संस्थान बंगलुरु में माइक्रो बायोलॉजी व कोशिका जीव विज्ञान विभाग के डॉक्टर कुमारवेल सोमसुंदरम की टीम की ओर से हाल में किए गए एक अध्ययन में यह बात सामने आई कि इस प्रकार के ट्यूमर से पीड़ित लोगों के खून के सीरम में एक विशेष प्रकार के प्रोटीन की मात्रा बढ़ जाती है जिससे उसे ट्यूमर है या नहीं, इसकी पहचान करना आसान होता है। सीरम रक्त का द्रव भाग होता है और यह खून का थक्का जमाने में मदद करता है।
ग्लियोब्लास्टोमस ट्यूमर की पहचान के लिए अभी एमआरआइ, सीटी स्कैन जैसी तकनीकों का प्रयोग किया जाता है जो काफी महंगी हैं और इसमें काफी वक्त भी जाया होता है लेकिन नई पद्धति में खून के सामान्य विश्लेषण से ही इस ट्यूमर की पहचान की जा सकेगी।

इस अध्ययन में सीरम में तीन प्रोटीन की पहचान की गई है जिनकी मात्रा इस ट्यूमर से पीड़ित मरीज के शरीर में अलग-अलग पाई जाती है। जीबीएम से पीड़ित मरीज के सीरम में सीआरपी प्रोटीन की मात्रा बढ़ जाती है जबकि एलवाइएएम1 और बीएचई40 प्रोटीन का स्तर अपेक्षाकृत नीचे रहता है।
संस्थान के बयान के मुताबिक सीरम में इन तीन प्रोटीनों के स्तर का विश्लेषण कर हम 90 फीसद सटीकता से इस निर्णय पर पहुंच सकते हैं कि मरीज जीबीएम से पीड़ित है या नहीं।

सोमसुंदरम ने बताया कि हम अपनी सूची में सीआरपी को पाकर उत्साहित हैं क्योंकि यह मस्तिष्क की कोशिकाओं से नहीं बल्कि यकृत की कोशिकाओं से संश्लेषित होता है। इसने हमें प्रेरित किया कि कैसे जीबीएम के मरीजों में सीआरपी का स्तर उच्च पाया जाता है और यह ट्यूमर को बढ़ाने में किस तरह महायक है।
अध्ययन टीम की प्रमुख लेखिका ममता निजागुना ने कहा कि सीआरपी ट्यूमर की कोशिकाओं में कोशिका विभाजन, प्रवास या दवा प्रतिरोधकता को नहीं बढ़ाता है जो कि कैंसर की पहचान होते हैं। बजाय इसके जब यह रक्तसंचरण के माध्यम से मस्तिष्क में पहुंचता है तो हमारे तंत्रिका तंत्र की प्रतिरोधकता को बढ़ाने के प्रोटीन उत्सर्जित करने वाली कोशिकाओं को एक अन्य प्रोटीन आइएल-1बीटा को अधिक उत्सर्जित करने का संकेत देता है और यह आइएल-1बीटा प्रोटीन ट्यूमर के भीतर रक्त वाहनियों के विकास में मदद करता है।
इस अध्ययन में यह भी सामने आया है कि ट्यूमर की पहचान होने के बाद सीआरपी की बढ़ी मात्रा वाले जीबीएम से पीड़ित मरीज के जीवित रहने की अवधि कम ही होती है। इसका सही समय पर पता चलने से इसके संभावित इलाज को सही दिशा में लक्ष्य किया जा सकता है और यह तकनीक इसकी पहचान करने का सरल और सस्ता तरीका है। यह अध्ययन यूरोप के जर्नल आॅफ प्रोटेओमिक्स में प्रकाशित हुआ है।