अटका कहां स्वराज?/बोल दिल्ली!/तू क्या कहती है?/तू रानी बन गई/वेदना जनता क्यों सहती है?/सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में?/उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में…
रामधारी सिंह दिनकर ने आजादी के कुछ साल बाद भ्रष्टाचार के दलदल में फंसी राजनीति का हाल देख कर यह कविता लिखी थी। इसके छह दशक बाद अण्णा हजारे की अगुआई में ‘दूसरी आजादी’ की मांग करते हुए दिल्ली की सड़कों पर ‘आम आदमी’ के सहयोग से एक जंग छिड़ी और आजाद देश में स्वराज की मांग करते हुए देश की अगुआ पार्टियों को चुनौती देते हुए आम आदमी पार्टी की स्थापना हुई थी। लेकिन स्वराज छाप टोपी पहने आप के नेता आज वही सब कुछ कर रहे हैं जिसके खिलाफ हल्ला बोल और सड़कों पर राष्टÑवादी गीत गा आप ने जनता का दिल जीता था। आज इनके स्वार्थ के अखाड़े में आदर्श को पटकनी दी जा रही है, और ठगी सी जनता स्वराज ढूंढ़ रही है।
आम आदमी पार्टी ने देश की राजनीति में विकल्प देने का वादा किया था। जनता ने भरोसा भी किया था। लेकिन आज विकल्प पर भरोसा करने वालों की हालत कथाकार सुदर्शन के ‘बाबा भारती’ की तरह हो गई है। बाबा भारती अंगुलीमाल डाकू को कहते हैं कि तुम धोखा देने की बात किसी को न कहना, नहीं तो लोग अशक्तों पर भरोसा करना छोड़ देंगे। और स्वार्थ की राजनीति में आपा खोई आप का हश्र देख कर अब लोग विकल्पों पर भरोसा क्यों करेंगे।
स्वराज का नारा देने वाले अरविंद केजरीवाल की हालत आज उस आत्ममुग्ध नेता की तरह हो गई है जिसे लगता है कि वह कभी गलत नहीं हो सकता। दिल्ली में पानी की समस्या हो, नगर निगम से जुड़ा मुद्दा हो, बिजली की समस्या हो, उपराज्यपाल से मतभेद हों या फिर अभी-अभी राष्टÑपति प्रणब मुखर्जी द्वारा दिल्ली के विधायकों को संसदीय सचिव बनाए रखने संबंधित विधेयक को खारिज करना हो। केजरीवाल के हिसाब से यह सब मोदी करवा रहे हैं। उन्होंने अपने ऊपर उठे सवालें का जवाब न दे भावनात्मक कोण पर लाकर बात बंद कर दी। इतने संसदीय सचिवों की जरूरत क्यों, इस सवाल का जवाब देने के बजाए कहते हैं ‘मोदी जी मुझे मार लीजिए लेकिन जनता को कष्ट मत दीजिए’।
अण्णा आंदोलन के समय आदर्शों का जो हाईवे बना था, उससे छिटक कर अण्णा का मुहर लगे बिना अरविंद केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी बनाई। आज योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण, आनंद कुमार जैसे आदर्शवादी आप से बेदखल हैं। केजरीवाल पर जिसने भी सवाल उठाया, वह अपमानित कर पार्टी से निकाला गया। आप का स्वराज कहता है कि अरविंद केजरीवाल कुछ गलत नहीं करते। वे सवालों से परे हैं। वे हर सवाल पर चुप रहने के लिए स्वतंत्र हैं और दूसरों से जवाब मांगना उनका अधिकार है।
राष्टÑपति के विधेयक खारिज कर दिए जाने के बाद अब इन विधायकों पर बर्खास्तगी या अयोग्यता की तलवार लटक रही है। तुष्टीकरण की इससे बड़ी मिसाल शायद ही देश की किसी विधानसभा में हो जहां लाभ देने की नीयत से 21 विधायकों को संसदीय सचिव बना दिया गया। सनद रहे कि ऐसे रुतबे के बाद सिर्फ वेतन ही सब कुछ नहीं होता वरन पद से जुड़े विशेषाधिकार फिर चाहे वह गाड़ी हो, बंगला, दफ्तर, कर्मचारी या एक सीमित बजट हो, वह ज्यादा अहम होता है। लिहाजा, यह तर्क बेदम है कि यह पद लाभ का नहीं वरन सेवा का है। ऐसी सेवा का नसीब सबका कहां होता है। दिल्ली में बिजली-पानी की किल्लत है, सफाई कर्मचारियों, सरकारी स्कूलों की हालत बदहाल है। सरकरी स्कूलों में पूरी की पूरी कक्षा फेल हो रही है। लेकिन इन सेवाओं को दुरुस्त करने में विधायक और मंत्रियों की रुचि नहीं है। सरकार की नजर में सेवा की परिभाषा कुछ और दिखाई देती है।
और वे मोदी हैं जो ऐसी ‘वातानुकूलित सेवा’ का मौका भी विधायकों से छीन लेना चाहते हैं। यह अलग बात है कि यह विधेयक राष्ट्रपति ने रद्द कर दिया है और इस पर अंतिम फैसला चुनाव आयोग को लेना है। राष्टÑपति ने सरकार के दिल्ली विधानसभा सदस्य (अयोग्यता) कानून 1997 को अपनी सहमति देने से इनकार किया जिसके तहत सरकार चाहती थी कि संसदीय सचिव के पद को लाभ के पद की श्रेणी से बाहर रखा जाए। केजरीवाल दुहाई दे रहे हैं कि यह व्यवस्था तो 50 के दशक से भी पहले की है। यह उनकी सरकार को बर्खास्त करने या संकट में डालने की कवायद का हिस्सा है। कयास यह भी है कि पंजाब और गोवा में अपनी जड़ें जमाने के बाद वहां पर राजनीतिक लाभ उठाने के लिए दिल्ली के मुख्यमंत्री खुद ही शहीद होने को तत्पर हैं।
वे कई राज्यों का उदाहरण देते हैं जहां संसदीय सचिव पद की व्यवस्था है। लेकिन विडंबना यह भी है कि बड़ी सुविधा से ऐसी कई बातें भूल जाते हैं जहां लाभ के पद की वजह से बड़ी-बड़ी हस्तियों को अपने पद से हाथ धोना पड़ा। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का उदाहरण सबसे बड़ा है। याद रहे, 2006 में तेलुगुदेशम पार्टी ने तत्कालीन राष्टÑपति अब्दुल कलाम को एक याचिका दायर करके सोनिया गांधी को अयोग्य घोषित करने की मांग की थी। सोनिया तब रायबरेली से सांसद थीं और साथ ही राष्टÑीय सलाहकार परिषद की अध्यक्ष भी। याचिका में एनएसी के अध्यक्ष पद को ‘लाभ के पद’ की श्रेणी में रखा गया था जिसका कारण उस पद से जुड़े विशेषाधिकार थे। इसी याचिका के बाद सोनिया को लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा देकर दुबारा चुनाव लड़ना पड़ा था।
बहरहाल, केजरीवाल का कहना है कि उनके विधायक मुफ्त काम करने को तैयार हैं। और इस बारे में सरकार का जो आदेश है, उसमें साफ है कि उन्हें कोई वेतन या विशेषाधिकार नहीं दिया जाएगा। लेकिन यह इतना भी आसान नहीं और केजरीवाल हकीकत से उतने भी अनजान नहीं जितना वे दिखा रहे हैं।
आइए, एक नजर आम आदमी पार्टी के विधायकों को मिली सुविधाओं पर डाल लेते हैं। और ये सुविधाएं मुहैया करवाने का श्रेय केजरीवाल को ही है। उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद आप सरकार ने एक कानून बना कर दिल्ली के विधायकों के मूल वेतन में 400 फीसद बढ़ोतरी कर दी थी। विधायकों का प्रतिमाह वेतन 88 हजार से बढ़ाकर दो लाख दस हजार कर दिया गया था। इनका आने-जाने का खर्च 50 हजार से छह गुणा बढ़ाकर तीन लाख रुपए कर दिया गया। इन खुशकिस्मत विधायकों में से जो 21 सुपर खुशकिस्मत हैं, उन्हें दफ्तर, गाड़ी, भत्ते और प्रभाव की सूरत से और भी समृद्ध किया गया। इस पर तुर्रा यह कि यह भी कोई लाभ का पद है।
जब यह जमीनी हकीकत ‘आप’ की रीढ़ की हड्डी समझे जाने वाले हर आम आदमी को मालूम है तो उनके मुखिया केजरीवाल को क्यों नहीं। जानते तो वे भी हैं। लेकिन अब आम पार्टियों जैसी बन चुकी आप को अपना झुंड संभालने के लिए भाजपा या कांग्रेस की तरह ही तुष्टीकरण की नीति अपनानी पड़ रही है। लेकिन इस सच को स्वीकार करने के लिए केजरीवाल को अपना आदर्शवादी मुखौटा नोच कर फेंकना होगा, जो उन्हें मंजूर नहीं क्योंकि उसी के सदके वे देश के युवा वर्ग में अपनी पैठ बनाए हुए हैं। लेकिन सच यह भी है कि वे हर दिन अपनी पार्टी को बेनकाब करने की दिशा में एक कदम और आगे बढ़ जाते हैं।
आदर्शवादिता का ढोल पीटने वाली आप के अखाड़े में ही रोज आदर्शों की हत्या हो रही है। पार्टी प्रवक्ता से अलका लांबा को हटाया जाना भी इसी कड़ी का हिस्सा है जबकि अलका ने जो कहा उससे पार्टी का रुतबा और बढ़ता। लेकिन उनकी खता यह मानी गई कि वे पार्टी की खींची हुई लकीर पीटने में नाकाम रहीं। जब पार्टी में ही लोकतंत्र नहीं तो फिर स्वराज की बात किस मुंह से करें। लेकिन केजरीवाल के हिसाब से उनके विधायकों के सिर से लाभ की टोपी उतारना ही लोकतंत्र की हत्या है। दरअसल, इस समय इस तरह का विवाद पार्टी की रणनीति का हिस्सा दिखाई दे रहा जिसके तहत वह पंजाब में अपने पैर पसारना चाहती है। पंजाब वह प्रदेश है जहां जब दिल्ली समेत पूरे देश में आम आदमी पार्टी का सूपड़ा साफ हो गया था तब इसी सूबे ने चार सांसदों को चुन कर लोकसभा में भेज दिया था।
अब यहां अगले साल चुनाव हैं। सत्ता पर काबिज अकाली दल-भाजपा सरकार की साख जनता की नजरों में बहुत मजबूत नहीं है। कांग्रेस ने अपनी बागडोर हालांकि चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर के सुपुर्द की है। इसके बावजूद पार्टी आप को कोई खास नुकसान पहुंचाती नहीं दिख रही। ऐसे में ‘राष्टÑीय पीड़ित’ के तौर पर खुद को पेश करके केजरीवाल इसे चुनाव में भुनाने की होड़ में दिखाई दे रहे हैं। अपनी पिछली सरकार से इस्तीफा दे सरकार को गिरा उन्होंने दिल्ली में यही किया था।
इस बार समस्या यह है कि केजरीवाल का कोई भी तीर निशाने पर नहीं लग रहा। जिन आटो चालकों के प्रचार के दम पर केजरीवाल दिल्ली की सत्ता पर काबिज हुए वे भी उनसे हताश हैं। आटोचालक सुरिंदर कहते हैं, ‘अब यह भी क्या बात है। अगर कानून नहीं कह रहा तो क्यों बनाना और जब कोई लाभ ही नहीं देना तो क्या फर्क पड़ता है कि वह पद है या नहीं। इस पर इतनी लड़ाई से ही साफ है कि इसमें कुछ है जो लोग छोड़ना नहीं चाहते। यह बात तो निराश करने वाली है’। और इसमें कोई हैरानी की बात नहीं कि जो बात आम आदमी को भी समझ आ रही है, वही बात मुख्यमंत्री को क्यों नहीं? वह भी ऐसे मुख्यमंत्री को जिनका दावा है कि उनकी पार्टी में इंजीनियर, डाक्टर और दूसरे काबिल लोग हैं। इसी चुनी हुई नासमझी को तो सियासत कहते हैं जिसे आप के आंदोलनकारी कोसते थे।
दिल्ली की सरकार को अगर अपने को दूसरों से ज्यादा पढ़ा-लिखा होने का दावा करना है तो उन्हें कुछ विद्वता दिखानी होगी वरना यह भी उनके दूसरे खोखले वादों की तरह ही लगेगा। इसकी शुरुआत वे चाहें तो इसी मुद्दे पर कड़ा रुख लेकर कर सकते हैं। वैसे भी अगर कोई लाभ है ही नहीं और किसी लाभ का मोह भी नहीं तो फिर उन पदों से चिपकने का क्या लाभ। जितनी शिद्दत इन पदों पर ‘अपनों’ को बनाए रखने के लिए दिखाई जा रही है, उतनी अगर दिल्ली के बिजली-पानी के मुद्दों को हल करने के लिए दिखाई जाती तो दिल्ली की गलियों में लोग एक-दूसरे के सिर पर बाल्टियां न मार रहे होते, दो बूंद पानी के लिए।
आम आदमी पार्टी का इतिहास ऐसा कोई उदाहरण तो पेश नहीं करता कि चुनाव जीतने के अलावा उसने कुछ अलग करके दिखाया। लेकिन जब जागो तभी सवेरा की तर्ज पर उसकी शुरुआत लाभ के पदों को तिलांजलि देकर की जा सकती है। वरना यह जनता है जो सब जानती है। अगली बार चुनावी आंच पर स्वराज, लोकपाल और भ्रष्टाचार जैसी अपनी काठ की हांडी तो नहीं ही चढ़ा सकेंगे केजरीवाल साहब।
बेबाक बोलः उड़ता आदर्श- आप सहिंता
पद, गाड़ी, बंगला, पैसा इन्हीं मुद्दों पर आम आदमी पार्टी दूसरे राजनीतिक दलों पर कीचड़ उछालते हुए अपनी टोपी को सबसे सफेद बताती थी। और सत्ता का नशा चढ़ते ही अब उन्हीं पद और सुविधाओं की मारामारी मचा रखी है, और उसके लिए नियम-कायदों की भी परवाह नहीं। हां, चेहरे से आदर्श का मुखौटा अभी उतरा नहीं है। और अपना मनचाहा पूरा होता नहीं देख केजरीवाल साहब खुद को ‘राष्टÑीय पीड़ित’ घोषित करने में लगे हैं। आप के करोड़ों के चमकते विज्ञापन के बरक्स दिल्ली अभी भी बिजली, पानी और सफाई जैसी बुनियादी सुविधाओं के बेहतर होने की राह ताक रही है। स्वराज और जनलोकपाल के गाहे-बगाहे लगते आदर्शवादी नारों के बीच आप से उड़ते आदर्श पर बेबाक बोल।
Written by मुकेश भारद्वाज

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First published on: 18-06-2016 at 04:33 IST