जब मोदी का जादू जुमला बनकर हाशिए पर जा रहा था और कांग्रेस अपने बचे-खुचे आंकड़ों के साथ संसद से सड़क तक शक्ति प्रदर्शन कर रही थी तभी ‘पंच परमेश्वर’ के संदेश ने पासा पलट दिया। भाजपा कच्छ से लेकर कामरूप तक पहुंच गई और हिंदी भाषी क्षेत्र के बाहर अपनी सरकार बनाने में कामयाब हुई। जंग-ए-आजादी से जुड़ी कांग्रेस अपने रसातल पर है और क्षेत्रीय क्षत्रपों की दमदार मौजूदगी भारत में संघवाद के अच्छे भविष्य का एलान कर रही है। इस तथ्य पर ध्यान देना जरूरी है कि भाजपा की विराट जीत वहीं हुई है जहां उसके मुख्य मुकाबले में कांग्रेस थी। बाकी जगह तो स्थानीय शक्तियों की तूती बोल रही है। पांच राज्यों का संदेश भाजपा की अखिल भारतीय स्वीकार्यता का है या फिर कांग्रेस को नकारने का, इसी बहस को आगे बढ़ाता इस बार का बेबाक बोल।

देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुआई में बनी भारतीय जनता पार्टी की सरकार में उनके वादे के मुताबिक अच्छे दिन आए कि नहीं, इस पर माथापच्ची बदस्तूर जारी रहेगी। लेकिन इन सबके बीच पांच राज्यों से जो जनादेश आया है, उससे लगता है कि दिल्ली और बिहार के नतीजों से शुरू हुए ‘बुरे दिनों के दौर’ के बाद अब भाजपा के ‘अच्छे दिन’ लौट आए हैं। आलम यह है कि पार्टी ने असम में इतिहास रच दिया है। पश्चिम बंगाल में अपनी हाजिरी में बढ़ोतरी की है और दक्षिण में दस्तक दे दी है। पूर्वी और दक्षिणी राज्यों में समुचित उपस्थिति न होने के कारण भाजपा को पूरी तरह राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा विश्लेषकों ने कभी नहीं दिया। लेकिन अब हालात बदलते दिख रहे हैं। देश में अगर यही हवा रही तो कांग्रेस के हाथों से कहीं यह विशेषाधिकार छिन न जाए!

तमिलनाडु, असम, पश्चिम बंगाल, केरल और पुडुचेरी के चुनाव नतीजों ने कांग्रेस के कानों में खतरे की ऐसी घंटी बजाई है जो अगले लोकसभा चुनाव तक लगातार बजती रहेगी। सच यह भी है कि भाजपा के लिए अगर अच्छे दिनों की वापसी हुई है तो कांग्रेस के पास तो जैसे बुरे दिनों ने अपना डेरा ही डाल दिया है। यही हाल रहा तो वह दिन दूर नहीं कि कांग्रेस और इस चुनाव में अपनी विचारधारा से ऐतिहासिक समझौता करने वाले वामपंथ पर कहीं अस्तित्व का ही संकट खड़ा न हो जाए। ऐसा लगता है कि देश के दूरदराज के इलाकों में भी लोगों ने मोदी के ‘कांग्रेसमुक्त भारत’ के नारे को गंभीरता से लिया है। वे अगले चुनाव तक प्रधानमंत्री को यह कहने का मौका शायद नहीं देना चाहते कि देश आगे इसलिए नहीं बढ़ा कि लोगों ने इसे कांग्रेस से पूरी तरह मुक्त नहीं किया।

लिहाजा कोई अगर सोच रहा है कि यह मौका भाजपा के लिए महज जश्न का है तो यह गलतफहमी से ज्यादा कुछ नहीं। सच यह है कि अब मोदी को लोगों को अपने ही ‘मन की बात’ सुनाने के बजाय उनकी सुननी भी पड़ेगी और उसे अमल में भी लाना पड़ेगा। देश के लोग उन्हें इससे बड़ा तोहफा नहीं दे सकते थे और अब भी वे अगर लोगों की आकांक्षाओं के अनुरूप खरे नहीं उतरे तो यह ध्यान रहे कि लोगों ने ही आजादी के बाद से लगभग लगातार देश की सत्ता पर काबिज कांग्रेस को 2014 के लोकसभा चुनाव में पहले धरातल और अब रसातल की ओर धकेल दिया है। अपने इस निश्चित अंत से बचने के लिए अगर कांग्रेस ने अब भी कुछ नहीं किया तो उसे बाकी के बचे-खुचे छिटपुट प्रदेशों में भी अपनी इज्जत बचानी मुश्किल हो जाएगी। जाहिर है कि वक्त आ गया है कि कांग्रेस अपनी चुनावी रणनीति पर पुनर्विचार करे।

मोदी के लिए यह कामयाबी लोकसभा की विजय से कम नहीं है, क्योंकि असम में सत्ता परिवर्तन और बाकी राज्यों में अपनी हाजिरी के साथ ही उन्होंने भारतीय जनता पार्टी को देश की राजनीतिक मुख्यधारा में कांग्रेस के समांतर ला खड़ा किया है। अभी कर्नाटक, हिमाचल, पुडुचेरी, उत्तराखंड और पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में इसके जो अवशेष बचे हैं, यह महज वक्त की बात है कि कब वे भी वक्त की परतों में नेस्तनाबूद हो जाएं। यह भी सच है कि अगर कांग्रेस ने वक्त की इस आवाज को नहीं पहचाना तो कहीं ऐसा न हो जाए कि उत्तराखंड की तर्ज पर उसका अपना ही काडर भाजपा की छत्रछाया में पनाह मांगता फिरे। इससे पहले हरियाणा में यही हुआ, जहां बीरेंद्र सिंह और राव इंद्रजीत सरीखे कई दिग्गज इस डूबते जहाज से छलांग लगा कर भाजपा की कश्ती में सवार हो गए।

उत्तराखंड के सभी बागी बुधवार को भाजपा में शामिल हो गए। प्रदेश में नौ पूर्व विधायकों का एकमुश्त पार्टी छोड़ जाना मुख्यमंत्री हरीश रावत के लिए एक बड़ा झटका है। देखना यह होगा कि रावत को जो राहत मिली है, वे किस तरह उसे अपने हक में ढाल पाते हैं। हिमाचल में वीरभद्र सिंह पहले ही आलाकमान के पास अपना दुखड़ा रो चुके हैं। उनके लिए भी रावत जैसे ही हालात हैं। पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल और उनके बेटे अनुराग ठाकुर ने तो उनकी नाक में दम कर ही रखा है, उस पर उनके अपने भी गुपचुप उनकी राजनीतिक कब्र खोदने में जुटे हैं। ऐसे में उन पर भी नजर रहेगी कि वे किस तरह अपनी गद्दी बचा पाते हैं।

बहरहाल, इन चुनाव परिणामों से एक बार फिर मोदी-शाह की जोड़ी पार्टी में ताकतवर होगी और राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ इनके मार्गदर्शक के तौर पर। असम में पार्टी की जीत का श्रेय यह जोड़ी शायद पूरा न ले सके, क्योंकि वहां पर चुनाव की कमान राम माधव के हाथ में थी, जिन्हें संगठन से पार्टी में भेजा गया है। बावजूद, कठिन परिस्थितियों में पार्टी को साफ निकाल ले जाने वाले राजनीतिकार की शाह की छवि को जिस तरह पहले दिल्ली में और फिर बिहार में जोरदार झटका लगा था, उससे वे निश्चित ही उबर पाएंगे। पार्टी देश में जिस बहुलतावादी राजनीति का दम भर रही है, उसे और बल मिलेगा। लेकिन यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि ये परिणाम पार्टी के कट्टरवादी नेताओं की जुबान को जाहिरा तौर पर नई छटा देंगे। उत्तर प्रदेश में यही छटा मुलायम को अलग-थलग करने में कारगर दिखाई देगी। हालांकि इस रणनीति की कामयाबी के परिणाम तो खतरनाक ही होंगे।

जो हो, इस समय तो भाजपा शायद ही किसी के समझाए यह समझेगी कि वह बहुलतावादी सोच से किनारा कर ले। यह कामयाबी तो पार्टी के सिर चढ़ कर बोलेगी क्योंकि जीत की इस ऐतिहासिक भूमिका के साथ उत्तर प्रदेश और पंजाब के मैदान में उतरना उसे बल प्रदान करेगा। यह सच है कि इस जीत ने इन दोनों राज्यों में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों में भाजपा के लिए एक सकारात्मक भूमिका बांध दी है। लेकिन यह भूलना नहीं चाहिए कि लोकसभा और उसके बाद हुए चार राज्यों के चुनावों में जीत का परचम लहराने के बाद भाजपा को चुनावी क्षितिज पर उभरी ‘बच्चा पार्टी’ के तौर देखी जाने वाली आम आदमी पार्टी ने ही 70 के सदन में तीन के आंकड़े पर समेट कर दिन में ही तारे दिखा दिए थे और फिर बिहार की शर्मनाक हार।

इन चुनाव नतीजों से यह भी साफ हुआ कि भाजपा ने अतीत से सबक सीख कर अखाड़े में प्रवेश किया। खासतौर पर असम में, जहां सर्वानंद सोनोवाल को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया गया। दिल्ली में जिस तरह से किरण बेदी को थोप कर और बिहार में जिस तरह नेता को जाहिर किए बिना लड़ा गया और पराजय का मुंह देखा गया, उस रणनीति में दोनों से सबक लेकर सुधार किया गया। सोनोवाल के रूप में न सिर्फ नेता को सामने लाया गया, बल्कि असम के लोगों में से ही उनका नेता दिया गया। भाजपा को यहीं से बड़ी उम्मीद थी। बाकी जगहों पर उसे केवल अपनी हस्ती दिखानी थी। लेकिन यह सच है कि तमिलनाडु, केरल, पुडुचेरी या पश्चिम बंगाल में पार्टी के लिए असम की टक्कर की अच्छी खबर नहीं है। लेकिन उसके लिए राहत की खबर यह है कि वहां उसकी राष्ट्रीय विरोधी पार्टी के लिए बुरी ही बुरी खबर है।

कांग्रेस के बुरे दिनों का आलम यह है कि पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में जहां उसने अपनी राष्ट्रीय छवि को दरकिनार करते हुए जूनियर पार्टी की तरह क्षेत्रीय और वाम दलों का हाथ पकड़ा, वहां उन्हें भी साथ ही डुबो दिया। दोनों जगह पर नारी शक्ति ने अपना ऐसा जबर्दस्त प्रदर्शन किया कि इतिहास रच के रख दिया। तमिलनाडु में 32 साल बाद एक ही पार्टी दूसरे कार्यकाल के लिए सत्ता पर काबिज हुई और पश्चिम बंगाल में नारदा, सारदा और फ्लाईओवर जैसे घोटालों और दुर्घटना से पार पाते हुए ममता बनर्जी ने सभी अनुमानों से कहीं बेहतर प्रदर्शन करके अपनी सत्ता बरकरार रखी। कांग्रेस को केरल में भी सत्ता से हाथ धोना पड़ा।

बहरहाल, इस परिणाम में दोनों ही दलों के लिए संदेश निहित है। भाजपा के लिए तो साफ है कि अब अपने वादों को साकार करके दिखाना होगा या फिर मानना होगा कि अच्छे दिन भी विदेश से कालाधन वापस लाकर हरेक की जेब में पंद्रह लाख रुपए डालने के जैसा ही एक जुमला मात्र था। कांग्रेस को और खासतौर पर कांग्रेस की सत्ता पर जमे हुए गांधी परिवार को बैठ कर यह सोचना होगा कि उन्हें भी भाजपा की तर्ज और दिल्ली की तरह यह सबक तो नहीं लेना होगा कि नेतृत्व थोपने से नहीं होता, बल्कि इसकी स्वीकार्यता से होता है। इन दोनों के लिए उत्तर प्रदेश और पंजाब में अगला कड़ा इम्तहान अगले ही साल है।

परिवार की सत्ता को बनाए रखने की वरिष्ठ कांग्रेसजनों की जद्दोजहद इतनी प्रबल है कि वे यह भी नहीं देख पा रहे कि उनके पास कर्नाटक की सूरत में एक ही बड़ा राज्य रह गया है। पूर्व के तीन राज्यों की जहां पार्टी की सत्ता है, दिल्ली में हैसियत न के बराबर है। राज्यसभा के जिस अपने आंकड़े के बूते कांग्रेस संसद में अपनी धौंसपट्टी दिखाती है और जिसके बलबूते पर जीएसटी विधेयक पास न होने दिया, वह भी धीरे-धीरे चरमरा जाएगा। भाजपा ने अगर इसी तरह से राज्यों पर अपना कब्जा जमाया तो वह दिन दूर नहीं कि राज्यसभा में भी पार्टी अपनी स्थिति ऐसी तो कर ही लेगी कि कांग्रेस की हेकड़ी गायब हो जाए। फिलहाल तो यही सच है कि चुनाव परिणाम भाजपा के लिए इतनी अच्छी खबर नहीं लाए जितनी बुरी खबर कांग्रेस के लिए लाए हैं।

जीत-हार के बोल

पूरे देश की स्वीकार्यता
जनादेश यह दिखाता है कि लोग पार्टी की विकास की विचारधारा का समर्थन कर रहे हैं और इससे आम आदमी के विकास के लिए और काम करने की ऊर्जा मिलेगी। असम में पार्टी की जीत, जो पूर्वोत्तर के किसी राज्य में पार्टी की पहली जीत है, ने स्पष्ट कर दिया है कि भाजपा को देश के सभी भागों में लोकप्रिय स्वीकृति मिल रही है, जो लोकतंत्र के लिए एक शुभ संकेत है। चुनावी नतीजों से यह साबित होता है कि विकास की भाजपा की विचारधारा और आम आदमी के जीवन में बदलाव लाने के उसके अथक प्रयासों को जनता का पूरा समर्थन मिल रहा है।
-नरेंद्र मोदी, प्रधानमंत्री

करेंगे आत्ममंथन
पार्टी पराजय के कारणों का आत्ममंथन करेगी और लोगों की सेवा के लिए अधिक मेहनत से काम करेगी। हम अपनी क्षति के कारणों को लेकर आत्ममंथन करेंगे तथा हम और मेहनत के साथ लोगों की सेवा में अपने को फिर से लगाएंगे। कांगे्रस असम, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, पुडुचेरी एवं केरल के लोगों के जनादेश को पूरी विनम्रता के साथ स्वीकार करती है। मैं इन चुनाव में हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मजबूती देने के लिए भाग लेने वाले लोगों तथा प्रचार में कड़ी मेहनत करने वाले कांगे्रस के कार्यकर्ताओं व नेताओं को धन्यवाद देती हूं।
-सोनिया गांधी, कांग्रेस अध्यक्ष

कांग्रेसमुक्त दो कदम और
देश ने कांग्रेस मुक्त भारत की तरफ दो और कदम बढ़ाए हैं। इन तमाम स्थानों पर भाजपा चुनाव में कभी अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाई थी। इस बार एक मजबूत बुनियाद रखी गई और 2019 तक एक इमारत तामीर होगी। एक तरह से यह मोदी सरकार के दो साल के कामकाज का सार्वजनिक अनुमोदन है। यह सकारात्मक राजनीति की जीत है और हम कामकाज की राजनीति की शुरुआत देख सकते हैं। जनता ने उन लोगों को सबक भी सिखाया है जो नकारात्मक राजनीति करते हैं और जिन्होंने संसद में अपने अवरोध से विकास को बेपटरी करने का प्रयास किया।
-अमित शाह, भाजपा अध्यक्ष

करेंगे आत्मविश्लेषण
हम पश्चिम बंगाल के लोगों के फैसले को पूरी विनम्रता से स्वीकार करते हैं। सभी कामरेडों, समर्थकों और उन लोगों का आभार जो हमारे साथ खड़े रहे। हम नतीजों का आत्मविश्लेषण करेंगे। यह एक चुनौती है जिसका हम पूरी अपनी शक्ति से मुकाबला करेंगे।
– सीताराम येचुरी, माकपा अध्यक्ष