आम जीवन में संख्याओं को लेकर इस तरह की धारणाएं अपना काम करती रहती हैं कि कई बार वे अजीब-अजीब तरह से लोगों के साथ शुभ और अशुभ का खेल खेलती हैं। भले ही उनका कोई प्रभाव न हो, लेकिन वे लोगों की गतिविधियों को कई बार नियंत्रित करती हैं। भारत के होटलों में कई बार देखा जा सकता है कि तेरह नंबर के कमरे नहीं मिलते हैं।
कई ऐसी संख्या है, जिसे समाज में अशुभ माना जाता है। इसी में एक संख्या तेरह भी है। संख्या तेरह कब से अशुभ हो गई, इसका कोई मजबूत ब्योरा नहीं मिलता है। राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र से ताल्लुक रखने वाली एक जाति एक अन्य संख्या बारह को शुभ नहीं मानती है। इस जाति के लोग जब कोई भी चीज किसी को उपहार में देते हैं तो वह संख्या बारह नहीं होती है।
उनका मानना है कि किसी की मृत्यु के बाद श्राद्ध कर्म के अनुसार हम मरे हुए इंसान की बारहवीं करते हैं, इसलिए यह संख्या हमारे जीवन में शुभ नहीं है। तो क्या ‘तेरहवीं’ के स्रोत का सिरा इधर ही जाता होगा? एक बार बनारस की यात्रा करते हुए एक व्यक्ति ने वहां एक किराने के साथ अन्य वस्तुओं की दुकान से कुछ घरेलू चीजें खरीदीं। उस सामान की कुल कीमत हुई चार सौ बीस रुपए।
दुकान में बैठे हुए नौजवान ने कहा कि आप एक रुपए कम दीजिए। कारण पूछने पर नौजवान ने कहा कि मैं ‘चार सौ बीस’ रुपए नहीं लूंगा। हालांकि पहले सामान के मोलभाव के दौरान वह नौजवान एक रुपया भी कम करने के लिए तैयार नहीं था, लेकिन जब बिल ‘चार सौ बीस रुपए’ आया तो वह एक रुपया कम लेने की जिद करने लगा। आखिरकार उसे एक रुपया ज्यादा देकर उस ‘चार सौ बीस’ की संख्या को उसके लेने लायक बनाया गया।
दरअसल, ‘चार सौ बीस’ भारतीय दंड संहिता की एक धारा है। यह धारा चोरी जैसे अपराध पर लागू होती है। हालांकि इस धारा से उस बिल का कोई संबंध नहीं हैं, लेकिन हमने अपने दिमाग में इस संख्या को भी अशुभ बना दिया। यों हम अपने सामान्य जीवन में तीन अंक की संख्या को भी अशुभ मानते हैं। संख्या तीन के बारे में कई बातें गढ़ी गई हैं। मसलन, ‘तीन तिगाड़ा काम बिगाड़ा’ और ‘तीन टिकट महा विकट’।
ज्यादातर लोग यह प्रयास करते हैं कि उन्हें अपने जीवन में तीन संख्या से न टकराना पड़े। बचपन में ही तीन को अशुभ संख्या के रूप में दिमाग में बैठा दिया गया। नतीजतन, यह प्रयास होता कि किसी भी काम में संख्या तीन नहीं आए। जब कभी किसी शुभ कहे जाने वाले काम के लिए कहीं जाना होता है तो यह प्रयास रहता हैं कि उस कार्य में तीन लोग नहीं जाएं। उससे कम या ज्यादा हो तो ठीक रहेगा। यों संख्या तीन ने कभी भी कोई नुकसान नहीं पहुंचाया है।
पता नहीं, हम किन वजहों से ग्यारह, इक्कीस, इक्यावन, एक सौ एक जैसी संख्या को शुभ मानते हैं और धार्मिक और शुभ माने जाने वाले कार्यों में इन संख्याओं का उपयोग करते हैं। ऐसा भी किसी के पास कोई प्रमाण नहीं है कि इन शुभ माने जाने वाली संख्याओं के इस्तेमाल से किसी को कोई अतिरिक्त फायदा हुआ हो और यह भी नहीं हुआ है कि इस संख्याओं का इस्तेमाल नहीं करने से किसी को कोई नुकसान हुआ हो। फिर हम इन सख्याओं पर इस तरह का ‘अत्याचार’ क्यों करते हैं?
इसी तरह, सप्ताह के दिनों के बारे में भी कई गड़बड़ चीजें दिमाग में बैठा दी गई हैं। भारत में ज्यादातर लोग शनिवार को कोई नई चीज, जैसे इलेक्ट्रानिक सामान, गाड़ी आदि नहीं खरीदते हैं। कई लोग सरसों तेल और लोहे से बनी चीजें भी शनिवार को नहीं खरीदते हैं। बिहार के सासाराम शहर में एक खास जाति के लोग गुरुवार को भी कोई भी नई चीज नहीं खरीदते हैं। उसके पीछे उनका कहना है कि गुरुवार उनका ‘मान’ दिन होता है। अमुक दिन अमुक दिशा की यात्रा ठीक नहीं हैं, यह भी धारणा हमारे जीवन मे घुली हुई है।
बहरहाल बाजार ने भी संख्या के इस खेल में अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी है। शादी वगैरह समारोह में उपहारस्वरूप रुपया देने के लिए जो लिफाफा बाजार में मिलता है, उसमें पहले से ही एक रुपए का सिक्का लगा रहता है, ताकि लोगों को एक रुपया ढूंढ़ने में कोई भी परेशानी न हो और संख्या को लेकर शुभ और अशुभ का यह खेल चलता रहे।
संख्या को लेकर बिना सिर-पैर की बात इतनी मजबूती से दिमाग में बिठाई गई है कि हम इससे अभी भी बाहर नहीं निकल पाए हैं और आज भी कई बार इसके ‘शिकार’ हो जाते हैं। बात तो हम विश्वगुरु बनने की करते हैं, लेकिन हम अपने जीवन में कुछ खास संख्याओं के इस्तेमाल से इतना ज्यादा घबरा जाते हैं मानो इन संख्याओं ने हमारा कितना नुकसान पहुंचाया है!
